भारत में समाजवादी राजनीति ने तमाम तरह के उतार–चढ़ाव देखे हैं। वैसे तो भारत में इसके अनेक मॉडल हैं‚ लेकिन मूल रूप से डॉ. राम मनोहर लोहिया मॉडल ही विमर्श के केंद्र में रहा है। दक्षिण के राज्यों में समाजवाद का मॉडल अलग रहा है। वहां पेरियार‚ नारायण गुरू आदि समाज सुधारकों का प्रभाव अधिक रहा है। जातिगत दृष्टि से भी देखें तो एक मूल अंतर यह कि उत्तर भारत में समाजवादी राजनीति को केवल पिछड़े वर्ग तक सीमित कर दिया गया तो दक्षिण के राज्यों में यह एक वृहत्तर समुच्चय के रूप में विकसित हुआ‚ जिसमें पिछड़े वर्ग के साथ दलित भी शामिल हुए।
उत्तर भारत में समाजवादी राजनीति को सीमित करने में डॉ. लोहिया की बड़ी भूमिका रही। उन्होंने ही यह नारा दिया था ‘संसोपा ने बांधी गांठ‚ पिछड़ा पावे सौ में साठ।’ जिस समय उन्होंने यह नारा दिया था‚ तभी यह स्पष्ट हो गया था कि समाजवादी राजनीति किस दिशा में जाएगी। हालांकि बाद में समाजवादियों ने इसमें सुधार भी किया। मसलन‚ बिहार में जगदेव प्रसाद ने ६० की बजाय ९० फीसदी के हक–हुकूक का सवाल उठाया। बाद में दलित राजनीति को भारतीय राजनीति में स्थापित करने वाले कांशीराम ने भी ८५ फीसदी लोगों की बात की। इसके लिए उन्होंने डीएस–४ और बामसेफ जैसे संगठनों का निर्माण भी किया।
दक्षिण के राज्यों में समाजवादी राजनीति की अपनी दिशा रही है। वर्तमान में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन इसका नेतृत्व करते दिख रहे हैं। वे इस दिशा में प्रयासरत हैं कि देश में सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ एक मजबूत मोर्चा बने। परंतु उत्तर भारत में समाजवाद की राजनीति दिन–ब–दिन कमजोर पड़ती जा रही है। हालांकि यह बात दीगर है कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को जीत भले न मिली हो‚ लेकिन उसने सौ से अधिक सीटें जीतकर यह संकेत जरूर दिया है कि समाजवादी राजनीति का अंत नहीं हुआ है‚ और वह जीवित है। ऐसे ही हालात बिहार में भी हैं‚ जहां दो समाजवादी पार्टियाँ ऊपरी तौर पर एक–दूसरे के खिलाफ हैं। ये दो पार्टियाँ हैं–जनता दल यूनाईटेड (जदयू) और राष्ट्रीय जनता दल (राजद)। पहली पार्टी के नायक हैं नीतीश कुमार‚ जो पिछले १७–१८ वर्षों से बिहार के मुख्यमंत्री हैं। वहीं दूसरी पार्टी के नायक हैं लालू प्रसाद‚ जिन्होंने १९९० के दशक में बिहार में समाजवादी राजनीति के खूंटे को मजबूती से गाड़ा।
वर्तमान के हालात खासा दिलचस्प हैं। कई सवाल हैं‚ जिनके बारे में जदयू और राजद के बीच एकरूपता दिखती है। मसलन‚ जातिगत जनगणना का सवाल। यदि इसे एक कसौटी मानें तो कहा जा सकता है कि जदयू और राजद के दिल मिलते हैं‚ लेकिन सत्ता की सियासत के कारण दोनों अलग–अलग हैं। जदयू विधानसभा में तीसरे नम्बर की पार्टी है‚ और भाजपा की विशेष अनुकंपा से बिहार में सत्ता के शीर्ष पर है जबकि भाजपा के साथ जदयू के दिल नहीं मिलते। जातिगत जनगणना के सवाल पर भाजपा ने अपने हाथ खड़े कर लिए हैं। वहीं नीतीश कुमार ने प्रारंभ में तो राजद नेता तेजस्वी यादव की सियासत को कमजोर करने के इरादे से जातिगत जनगणना का समर्थन किया और बिहार में इसे सरकार के द्वारा करवाने की घोषणा कर दी। लेकिन अब यही बात उनके गले की हड्डी बन गई है। राजद इसे लेकर हमलावर की स्थिति में है।
यह तो हुई एक बात। दूसरी जो कि इससे भी अहम है‚ वह है राजनीतिक आचरण। कुछ महीने पहले ही जदयू के कोटे पर राज्य सभा सांसद रहे किंग महेंद्र का निधन हो गया। उनके निधन के बाद रिक्त सीट को लेकर गहमागहमी है। अब यहां दोनों दलों में एक खास तरह की समानता है। समानता यह कि दोनों दलों के शीर्ष नेताओं ने अपनी–अपनी मर्जी थोप दी है। हालांकि नीतीश कुमार ने इस बार अपनी छवि को बेहतर बनाने के लिए अनिल हेगड़े को अपना उम्मीदवार बनाया है। मूल रूप से कर्नाटक के रहने वाले हेगड़े फिलहाल जदयू के राष्ट्रीय स्तर के पदाधिकारी हैं‚ और १९८३–८४ से समाजवादी राजनीति में सक्रिय रहे हैं। जदयू में चूंकि नीतीश कुमार की तूती बोलती है‚ तो किसी ने उनके निर्णय पर सवाल खड़ा नहीं किया है। सवाल खड़ा हो रहा है तो वह है राजद के खेमे में। वहां होड़ सी लगी है। राजद ने अभी यह तय नहीं किया है कि उसका उम्मीदवार कौन होगा। इस बीच कयासबाजियों का दौर जारी है। कयासबाजियों में एक कयासबाजी यह भी है कि इस बार भी उम्मीदवार लालू प्रसाद के परिवार का ही कोई सदस्य होगा जबकि राजद के पास योग्य उम्मीदवारों की लंबी सूची है। इनमें जगदानंद सिंह‚ अब्दुलबारी सिद्दीकी‚ श्याम रजक जैसे वरिष्ठ नेता शामिल हैं।
दरअसल‚ समाजवादी विचारधारा वाले बिहार के इन दो दलों में एक समानता यह भी है कि दोनों की कार्यशैली एक जैसी है। जदयू में आंतरिक लोकतांत्रिक ढांचा लगभग नहीं के बराबर है। इस कारण नीतीश कुमार एकमात्र निर्धारक हैं। वहीं राजद में आंतरिक लोकतांत्रिक ढांचा केवल दिखाने के लिए है। निर्णय अंततः शीर्ष के नेता ही करते हैं।
अब आंतरिक लोकतांत्रिक ढांचा के क्रियाशील नहीं होने के कारण इन दोनों समाजवादी दलों के समर्थकों और कार्यकर्ताओं को निराशा होती है। व्यक्तिवाद महत्वपूर्ण हो जाता है। कहना अतिश्योक्ति नहीं कि आजकल के समाजवादी भी चुनावों में जमकर धन बल का उपयोग करते हैं। कहा तो यह भी जा सकता है कि वही इन दलों में तथाकथित लाभ के पद हासिल कर सकते हैं‚ जिनके पास धन बल है। किंग महेंद्र इसके बेहतरीन उदाहरण रहे। उन्होंने धन बल के आधार पर ही राजद के टिकट पर राज्य सभा की सदस्यता हासिल की। और बाद में उन्हें यही सदस्यता जदयू ने भी दिलाई।
बहरहाल‚ बिहार के ये दोनों दल‚ जिनका चरित्र लगभग एक जैसा है‚ अब भाजपा के मुकाबले खड़े़ होते दिख रहे हैं। जदयू द्वारा अनिल हेगड़े को उम्मीदवार बनाए जाने के पीछे भी यही सोच है कि नीतीश कुमार अपनी राष्ट्रीय स्तर की छवि बना सकें और २०२४ में यदि मौका मिले तो हाथ आजमाने वालों में सबसे आगे रहें। वहीं राजद अभी भी स्वयं को प्रांतीय राजनीति तक सीमित रखना चाहता है। लेकिन मूल सवाल यही है कि आंतरिक लोकतंत्र के क्रियाशील नहीं होने और व्यक्तिवाद के हावी रहने के कारण इन दोनों दलों का हश्र क्या होगाॽ