बलोच राष्ट्रवाद ऐसा आंदोलन है, जिसका मानना है कि बलोच जनसमूह मुस्लिम धर्म आधारित न होकर एक पृथक सामाजिक व सांस्कृतिक (पृथक नस्ल व भाषा आधारित) जनसमुदाय है, जो मूलत: ईरान अफगानिस्तान एवं पाकिस्तान में पाया जाता है।
ऐतिहासिक रूप से बलूचिस्तान अफगानिस्तान एवं ईरान की भांति वृहत्तर भारत का हिस्सा था। यह राज्य प्रथम आंग्ल-अफगान युद्ध 1839-42 के बाद अंग्रेजों के अधिकार में आया तथा 1876 में रॉबर्ट सैंडन को बलूचिस्तान का ब्रिटिश रेजिडेंट नियुक्त किए जाने के बाद 1887 तक इसके ज्यादातर इलाके ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन आ गए।
वस्तुत: बलूचिस्तान समस्या की जड़ें भारत विभाजन से जुडी हुई हैं। विभाजन में तय हुआ कि भारत और पाकिस्तान दो अलग राष्ट्र होंगे। लेकिन सिक्किम, भूटान और बलूचिस्तान (कलात,खरान, कामरान और लास बुला) ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन तो थे पर उन पर ब्रिटिश हुकूमत का सीधा शासन कभी नहीं रहा अपितु वे कुछ संधियों के तहत ब्रिटिश साम्राज्य के हिस्से थे। अत: बलूचिस्तान भारत या पाकिस्तान, दोनों में से किसी के साथ शामिल होने को बाध्य न होकर स्वतंत्र भी रह सकता था। खान ऑफ कलात मीर अहमद यार खां (जिन्होंने जिन्ना से प्रगाढ़ मित्रतावश मुस्लिम लीग की स्थापना में आर्थिक सहायता भी की थी) ने जिन्ना को अपना कानूनी सलाहकार नियुक्त कर लॉर्ड माउंटबेटन के सामने 4 अगस्त, 1947 को अपना पक्ष रखा। बैठक में निर्णय लिया गया कि 5 अगस्त, 1947 से बलूचिस्तान (कलात में खरान, कामरान, लास बुला और बारी तथा बुग्ती के विलय के साथ) स्वतंत्र रहेगा। पाकिस्तान ने भी बलूचिस्तान से यथास्थिति समझौता कर 11 अगस्त, 1947 से स्वतंत्र बलूचिस्तान स्वीकार कर लिया। 15 अगस्त, 1947 को बलूचिस्तान की नेशनल असेंबली ने भी स्वयं को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया। इन सबके बावजूद 1 अप्रैल, 1948 को पाकिस्तानी सेना ने बलूचिस्तान पर आक्रमण कर दिया और कलात के खान का बलात आत्मसमर्पण कराने के साथ-साथ विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करा कर बलूचिस्तान का पाकिस्तान में विलय करा लिया।
1948 से ही बलोच निरंतर पाकिस्तान से स्वतंत्रता की मांग कर रहे हैं। आज बलूचिस्तान में बलूच लिबरेशन आर्मी, बलूचिस्तान लिबरेशन फ्रंट और बलूच रिपब्लिकन गार्डस जैसे संगठनों के माध्यम से हजारों बलूच लड़ाके पाकिस्तानी सेना के खिलाफ लड़ रहे हैं।
कमोबेश यही कहानी ग्वादर बंदरगाह की भी है। वह कभी ओमान का हिस्सा हुआ करता था। भारत और ओमान के संबंध अच्छे थे। ओमान के सुल्तान ने ग्वादर के इलाके को भारत को सौंपने की इच्छा भी जताई थी परंतु भारत सरकार ने दिलचस्पी नहीं दिखाई जबकि पाकिस्तान ने करीब तीस लाख डॉलर की रकम में ग्वादर का सौदा कर लिया और 8 दिसम्बर, 1958 को ग्वादर पाकिस्तान का हिस्सा बन गया। इलाके का तेज विकास 2002 में ग्वादर-कराची हाइवे निर्माण के साथ ही शुरू हुआ। 2013 में हुए एक समझौते के अंतर्गत पाकिस्तान ने 40 साल के लिए ग्वादर पोर्ट को चीन को लीज पर दे दिया। चीन ग्वादर पोर्ट को सीपीईसी एवं बीआरआई परियोजनाओं से जोड़ने के साथ ही वहां नेवी मिलिट्री बेस भी तैयार कर रहा है ताकि अरब सागर एवं हिंद महासागर में अपनी विस्तारवादी गतिविधियों को तेजी से आगे बढ़ा सके और बलूचिस्तान के प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों यथा तेल, प्राकृतिक गैस, सोना, तांबा, क्रोमाइट और यूरेनियम जैसे खनिजों का भरपूर दोहन कर सके।
गौरतलब है कि इसी प्रकार की भयंकर भूलें कुछ और मामलों में हुई हैं। उनमें मुख्य हैं-
1) भारत-पाकिस्तान विभाजन (1947) के समय पाकिस्तान द्वारा अधिकृत कश्मीर के संपूर्ण हिस्से को पुन: बिना वापस जीते हुए ही मामले को यूएन को हस्तक्षेप के लिए भेज देना,
2) हिमालयी भूल-हिंदी चीनी भाई भाई के नारे पर दिग्भ्रमित होकर रक्षा क्षेत्र में लापरवाही बरतना, फलस्वरूप चीन द्वारा भारत पर आक्रमण कर अक्साई चिन क्षेत्र के 38000 वर्ग किमी. जमीन पर कब्जा कर लिया जाना। परिणामत: भारतीय सीमा से होकर सीपीईसी का निर्माण और पाकिस्तान और चीन द्वारा भारतीय सीमा में एक साथ घुसपैठ/प्रवेश/दखलंदाजी का खतरा पैदा हो जाना तथा उनके द्वारा अरब सागर एवं हिंद महासागर क्षेत्र में घुसपैठ का आसान हो जाना,
3) तुष्टीकरण नीति के अंतर्गत कश्मीर में धारा 370 व 35 लागू कर उसके क्रियान्वयन द्वारा उसे शेष भारत से अलग करके विकास को अवरु द्ध कर देना,
4) 1951 में चीन द्वारा तिब्बत के बलात अधिग्रहण पर विरोध प्रकट करने की बजाय तत्काल इस अधिग्रहण को मान्यता प्रदान कर देना। फलस्वरूप चीन का नेपाल से सीधा संपर्क एवं मित्रता तथा भारत की सीमाओं में घुसपैठ को और अधिक आसान बना देना,
5) 1950 में अमेरिका द्वारा चीन के स्थान पर स्थायी सदस्य के रूप में भारत को प्राथमिकता दिए जाने दिए जाने के मंतव्य को भारतीय नेतृत्व द्वारा ठुकराया जाना और चीन को ही स्थायी सदस्यता दिए जाने की वकालत करना।
शीर्ष नेतृत्व की ऐसी भूलों ने देश को सामरिक, भू-राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से अलग-थलग करके न केवल कमजोर किया है, पितु भाविष्यिक प्रगति को भी अवरुद्ध किया है।