शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार को 24 घंटे का समय दिया है कि वह सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को इस बात का निर्देश दे कि जब तक भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124-अ की समीक्षा की जा रही है तब तक इसके तहत दर्ज केस पर रोक लगाई जाए। सरकार आज इस पर अपना जवाब देगी। हालांकि इस कानून पर बीते सोमवार को सरकार के रुख में भारी परिवर्तन आया और उसने शीर्ष अदालत को बताया था कि वह धारा 124-अ के प्रावधानों की फिर से जांच, परीक्षण और इस पर पुनर्विचार करेगी। केंद्र के इस फैसले का स्वागत किया जाना चाहिए कि वह इस कानून पर पुनर्विचार करने पर राजी हो गई है। अब तक वह इस कानून का बचाव कर रही थी।
वास्तव में ब्रिटिश साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक शासन के इस दमनकारी कानून के अंत का समय आ गया है। यह कानून लोकतांत्रिक मूल्यों, नागरिक स्वतंत्रता और मानवाधिकारों का विरोधी है। अंग्रेजों ने भारत की आजादी की लड़ाई का दमन करने के लिए 1860 में इस कानून को बनाया था और 1870 में इसे भारतीय दण्ड संहिता में शामिल किया गया।
यह विडंबना है कि आजाद भारत में भी पुलिस, प्रशासन और सरकारें इस कानून का दुरुपयोग करती रही हैं। सोशल मीडिया पर सरकार की नीतियों या किसी राजनीतिक नेता की आलोचना को इस कानून के दायरे में लाकर राजद्रोह का केस बनाना आम बात हो गई है। हालांकि आंतरिक और बाह्य खतरों से देश की अखंडता और संप्रभुता की रक्षा के लिए ऐसे दंडात्मक प्रावधानों की अनिवार्यता को खारिज नहीं किया जा सकता, लेकिन यह भी सच है कि प्रशासनिक अधिकारियों के हाथ में औपनिवेशिक काल के ऐसे डंडे नहीं देने चाहिए जो उन्हें दमनकारी बनाएं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2016 और 2019 के दौरान आईपीसी की धारा 124-अ (राजद्रोह) के तहत दर्ज होने वाले मामलों में 160 फीसद बढ़ोतरी हुई है, लेकिन दोषसिद्धि की दर महज 03 फीसद ही रही है।
इससे पता चलता है कि नागरिकों को परेशान करने के लिए ही इस कानून का इस्तेमाल किया जा रहा है। केंद्र ने राजद्रोह कानून पर पुनर्विचार करने का निर्णय लिया है तो इसका अर्थ है कि जिनके हाथ में सत्ता व शक्ति है, उनके द्वारा इस कानून के दुरुपयोग की चिंता का प्रकटीकरण हुआ है।