उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू जी मातृभाषा के प्रयोग के प्रति सदैव मुखर रहे हैं। उन्होंने कहा कि ‘मैं इस बात पर हमेशा जोर देता रहा हूं कि हर किसी को प्राथमिक शिक्षा उसकी मातृभाषा में मिलनी चाहिए।
ये समय की जरूरत है। अंग्रेजी भी रहेगी, हिंदी भी रहेगी, आप सीखिए मगर फोकस हमेशा मातृ भाषाओं पर होना चाहिए।’
सर्वविदित है कि मातृ भाषा में ज्ञान प्राप्त करना सुगम होता है यूनेस्को ने इस संबंध में एक रिपोर्ट भी प्रकाशित की है, जिसमें कहा गया है कि मातृ भाषा में शिक्षा प्राप्त करना प्रत्येक बच्चे का मूलभूत अधिकार है। भारत एक बहुभाषी समाज है भाषायी विविधता हमारे देश की खूबसूरती है। वर्तमान केंद्र सरकार 34 सालों के बाद नई शिक्षा नीति 2020 में लेकर आई है जो एक सराहनीय कदम है। नई शिक्षा नीति में स्थानीय भाषाओं और मातृ भाषाओं के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाया गया है, लेकिन नई शिक्षा नीति में मातृ भाषा और स्थानीय भाषाओं में शिक्षा उपलब्ध कराने की जो बात कही गई है उसका आधार क्या होगा? शिक्षा नीति में कोई स्पष्ट मानक तय नहीं किया गया है। क्या प्राथमिक शिक्षा आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाओं में होगा या अन्य स्थानीय भाषाओं में जो आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं है उनमें भी होगा, ये अनुत्तरित सवाल हैं। हाल ही में गृहमंत्री अमित शाह जी ने स्पष्ट कहा कि हिंदी को अंग्रेजी की जगह राष्ट्र की सम्पर्क भाषा बना देना चाहिए, यह एक साहसिक बयान है। अमित शाह जी ने अपने बयान में बताया कि पूर्वोत्तर भारत की बोडो, जेमी, किरबुक सहित आठ स्थानीय भाषाओं द्वारा देवनागरी लिपि अपनाना कोई मामूली घटना नहीं है। वैसे भारतीय भाषाओं के देवनागरी लिपि अपनाने का विचार नया नहीं है। आचार्य विनोबा भावे ने भी कहा था कि भारतीय भाषाएं अगर देवनागरी लिपि अपना लें तो भारत की एकता अखंडता के लिए मजबूत प्रयास होगा।
खासतौर पर दक्षिण की भाषाओं को इसका बड़ा लाभ होगा। वहां की चार भाषाएं अत्यंत निकट हैं, तेलूगु, मलयालम, कन्नड़ में बहुत सारे शब्द संस्कृत के हैं और इन भाषाओं में बहुत सारे शब्द समान हैं,अगर ये सभी नागरी लिपि स्वीकार कर लेते हैं तो दक्षिण के लोग चारों भाषाएं बहुत जल्द और आसानी से सीख सकते हैं। महात्मा गांधी जी चाहते थे कि देश की सम्पर्क भाषा हिंदी बने। यह देश का दुर्भाग्य है जहां इतनी सारी भाषाएं हैं वहां एक विदेशी भाषा अंग्रेजी सम्पर्क भाषा बनी हुई है। अमित शाह जी के हिंदी के संबंध में दिए गए बयान के बाद दक्षिण भारत से कुछ नेताओं द्वारा हिंदी विरोध के स्वर मुखर फिर हुए जो वर्षो से दक्षिण भारत में हिंदी विरोधी आंदोलन को हवा देते रहें हैं। हवा देने वालों में वामपंथी विचारधारा, सहित भारत की एकता अखंडता की विरोधी शक्तियों का महत्त्वपूर्ण एजेंडा है हिंदी विरोध। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ये सवाल अभी भी अनुत्तरित है। देश में 22 भाषाओं को आठवीं अनुसूची में मान्यता मिली हुई है मगर रिजर्व बैंक के नोट पर सिर्फ 15भाषाओं का प्रयोग होता है किसी ने विरोध नहीं किया। सेंट्रल यूनिर्वसटिी के अंदर स्नातक कोर्स के दाखिले के लिए 13 भाषाओं में परीक्षा दे सकते हैं, जिस बात पर कोई विवाद या विरोध नहीं है। साहित्य अकादमी में 24 भाषाएं मान्यता प्राप्त है। अन्य भाषाओं को साहित्य अकादमी से मिलने वाले पुरस्कारों, लाभों से वंचित होना पड़ता है, ये भी विसंगति है। 2005 में कुछ दक्षिण भारतीय भाषाओं को जो 1500 साल से ज्यादा पुरानी थी, शास्त्रीय भाषा की मान्यता मिली किसी ने कोई विरोध नहीं किया क्योंकि एक मानक तय किया गया, जिसके आधार पर इन शास्त्रीय भाषाओं को उनका लाभ मिल रहा है, कोई विरोध नहीं है। परंतु आज तक आठवीं अनुसूची का कोई पैरामीटर नहीं बन पाया कि आखिर आठवीं अनुसूची में भाषाओं को शामिल करने का क्या मानक हो, 14-15 लाख की संख्या में बोलने वाली भाषाएं आठवीं अनुसूची में शामिल हैं, मगर 20 करोड़ की संख्या में बोली जाने वाली भोजपुरी जैसी कई भाषाएं आठवीं अनुसूची से अभी भी दूर हैं।
वर्तमान केंद्र सरकार का रवैया स्थानीय भाषाओं के प्रति कुछ सकारात्मक जरूर रहा है। यूपी में भोजपुरी, अवधी, बुंदेली और ब्रज भाषाओं की अकादमी बनने की आहट है। 34 वर्षो बाद केंद्र सरकार ने नई शिक्षा नीति लाकर अपनी रचनात्मकता को व्यक्त किया है। नई शिक्षा नीति में मातृभाषाओं और स्थानीय भाषाओं में प्राथमिक शिक्षा देने की बात हो रही है ये अच्छी बात है, मगर आजादी के अमृत महोत्सव के बाद भी भारत राष्ट्र की अपनी कोई स्पष्ट भाषा नीति नहीं है, जिसके कारण कुछ नकारात्मक तत्व समय-समय पर हिंदी बनाम दक्षिण भारतीय भाषा, हिंदी बनाम भोजपुरी, हिंदी बनाम मराठी, हिंदी बनाम अंग्रेजी और हिंदी बनाम बंगाली विवाद को हवा देते रहते हैं। भाषायी नीतियों की अस्पष्टता के कारण बहुत सारी भाषाओं को उनके उचित हक से वंचित रहना पड़ता है जो यदा-कदा विवादों का कारण बनते हैं। जरूरत है कि जल्द-से-जल्द केंद्र सरकार भाषायी विवादों को दूर करने और विसंगतियों को खत्म कर आने वाली पीढ़ियों के भाषायी सौहार्द का निर्माण करने के लिए राष्ट्रीय भाषा नीति लेकर आए, तभी देश में अनुत्तरित भाषायी सवालों का हल निकल पाएगा और राष्ट्र के विकास की गति को तेज किया जा सकता है।