धार्मिंक आदर्श और प्रचलित मान्यताओं के विरुद्ध व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों ही स्तरों पर हाल के दिनों में जीवन की विसंगतियां किस कदर तत्पर हुई है इसे मौजूदा कुछेक प्रकरणों के आलोक में समझा जा सकता है।
अभी ट्विटर पर ‘नो बिंदी नो बिजनेस’ और ‘बायकॉट मालाबार गोल्ड’ ट्रेंड हो रहा है। दरअसल, मालाबार गोल्ड ने अक्षय तृतीया के मौके पर जूलरी का नया विज्ञापन शुरू किया है, जिसमें करीना के बिंदी नहीं लगाने से लोगों में रोष है। उनका मानना है कि पर्व त्योहार में औरतों का कुमकुम या बिंदी लगाना जरूरी है। फिर विज्ञापन बिना बिंदी क्यों? पिछले साल भी सोशल मीडिया पर ‘नो बिंदी नो बिजनेस’ ट्रेंड हुआ था। उस वक्त यह ट्रेंड फैब इंडिया और टाटा क्लिक जैसी कंपनियों के दिवाली ऐड के विरोध में शुरू किया गया था, लेकिन तमाम विरोधों और प्रवंचनाओं से इतर क्या इसे स्त्री अस्तित्व और निज स्वातंत्र्य के चश्में से परखा जाना जरूरी नहीं।
धार्मिंक या प्रचलित मान्यताओं की बजाय अन्तश्चेतना या सैद्धांतिक आलोचना के परिप्रेक्ष्य में इसका मूल्यांकन संतुलित, समदर्शी और प्रासंगिक निष्कर्ष दे सकता है। मौजूदा समाज ने अभिव्यक्ति के उन बंधनों को तोड़ने की प्रेरणा दी है जो अनुभूति की वास्तविकता के संप्रेषण में बाधा देते हैं। वैसे भी आधुनिक युग में व्यक्ति अपनी निजी भावना और निजी अनुभवों की अभिव्यक्ति के लिए स्वतंत्र है। निजता की यह स्वतंत्रता हमारे बोध में आए परिवर्तन को सांकेतिक करती है। यहां सात्र का अनिर मूलक अस्तित्ववाद दर्शन सार्थक प्रतीत होता है। उन्होंने धार्मिंक विश्वास के स्थान पर व्यक्ति स्वातंत्र्य को स्थान दिया है। उनका मानना है कि चुनाव करने की स्वतंत्रता मनुष्य जाति की एक दुखद नियति है। स्वतंत्रता मानव प्रकृति का सहज स्वरूप है। चुनने में स्वतंत्र होना उसकी जीवोचित प्रकृति भी है और आंतरिक संकट को जन्म देने वाली नियति भी। उसकी इस स्वतंत्र इच्छा शक्ति पर तकनीकी उपकरण निर्थक सिद्ध हो गए। प्रचलित सभी आदर्शवादी दर्शनों के दबाव ने अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। दर्शन कोई भी हो उसके केंद्र में व्यक्ति की अस्मिता का संकट है चाहे नर हो या नारी।
आज वह सब प्रकार के आधारों से निरपेक्ष होकर प्रयोगधर्मी रूप से अस्मिता को खोजना चाहती है। क्या इस तार्किकता को स्त्री की दमित इच्छा की धुरी के रूप में देखा जा सकता है। सवाल ये नहीं कि नायिका ने बिंदी लगाई या नहीं। सवाल ये भी नहीं कि यह धर्म सम्मत है या नहीं। मौजूं ये है कि जब भी स्त्री प्रचलित रंग प्रयोगों से इतर प्रयोगधर्मी या विसंगत रंग से खुद को रंगने की कोशिश करती है तब-तब विचारधाराएं टकराने लगती है। ऐसा क्यों है? क्या स्वतंत्र अस्मिता की तलाश व्यवस्था विरोधी है। स्त्री चेतना को मूर्तमान करने वाली घटनाएं अक्सर समाज के कथापुरु षों को क्यों खटकती है? यह प्रसंग किसी नायिका विशेष के परिप्रेक्ष्य में न भी होता तो जन साधारण के हितार्थ प्रश्न उठना लाजिमी था। आखिर हम स्त्री की स्वतंत्रता को लेकर इतने हमलावर क्यों हो जाते हैं? जब नई सदी में नई तार्किकता के साथ वैज्ञानिक वैचारिकता को तरजीह दी जा रही है तो जाहिर है प्रचलित आस्था विश्वासों में अनास्था का भाव व्यंजित होगा ही। हमें इन आंतरिक उलझाव के संत्रास से बचते हुए सार्थकता की तलाश करनी चाहिए। समाज की नीतियां और आदर्श डरावनी और दुखद न लगे इस पर समानांतर रूप से कार्य करने की जरूरत है।