मीडिया किस तरह से नये-नये प्रतीकों व मिथकों को पॉपूलर बनाकर उनमें नये मानी भरता है और किस तरह वह हमें नये मुहावरों का आदी बनाता है, यह देखना हो तो पिछले दिनों की बुलडोजर संबंधी घटनाओं के कवरेज और उनके साथ आती कमेंटियों को एक बार फिर से याद करना जरूरी है।
यों प्रशासन द्वारा बुलडोजरों का प्रयोग कोई नई बात नहीं। सबसे पहले संजय गांधी ने आपातकाल के दौरान ‘सफाई’ के लिए इनका इस्तेमाल किया था। लेकिन इस बार कुछ नया हो रहा है और यह है बुलडोजर की बढ़ती लोकप्रियता। वह ‘खतरनाक’ दिखने की जगह ‘नये न्याय के नये औजार’ की तरह स्वीकृत होने लगा। निकट अतीत में इसका पहला प्रयोग यूपी सरकार ने किया। ‘असामाजिक तत्वों’, ‘घोषित अपराधियों के ‘गैरकानूनी’ कामों की तुरंत सजा देने के औजार के रूप में इसका प्रयोग किया जाने लगा। ऐसी ‘डाइरेक्ट कार्रवाई’ पब्लिक को पसंद आई। पब्लिक की नजरों में बुलडोजर तुरंता न्याय दिलाने का ‘प्रतीक’ बन चला।
यूपी के चुनावों के दौरान विपक्ष ने योगी को इसीलिए ‘बुलडोजर’ बाबा की ‘उपाधि’ देकर उनको ‘रक्षात्मक’ बनाने की कोशिश की लेकिन योगी ने चुनाव परिणाम के दिन दर्जनों बुलडोजरों का खुले आम प्रदर्शन होने देकर इस उपाधि को ही अपनी ताकत बना लिया। बड़े-बड़े ‘दबंग’ बुलडोजर के नाम से डरने लगे :अगर कुछ गड़बड़ किया तो उनके मकानों-दुकानों पर बुलडोजर बाबा का बुलडोजर चल जाएगा। ‘शठे शाठ्यम् समाचरेत’ वाला यह न्याय तुरंत ‘पापूलर’ हो उठा : न अरजी, न वकील, न जज, न अदालत, बल्कि सीधे सजा। यूपी के पुराने ‘जंगल राज’ को जो जानते हैं, उनको ‘बुलडोजर राज’ बेहतर लगा क्योंकि उसने बदमाशों में डर बिठा दिया। यूपी के ‘बुलडोजर मॉडल’ को मध्य प्रदेश में ज्यों का त्यों कापी किया गया और बुलडोजर ने वहां के सीएम को ‘बुलडोजर मामा’ की उपाधि दिलाई। कुछ कहते रहे कि ये ‘खास समुदाय’ के खिलाफ चल रहा है। कुछ कानूनदां कहते रहे कि यह कानून को तोड़ना है। इसके जबाव में एमपी के एक मंत्री ने कहा कि हमारे राज्य का एक कानून इसकी इजाजत देता है। सरकारी जमीन के अतिक्रमण पर बुलडोजर चलेगा ही चलेगा..।
इसके बाद दिल्ली की जहांगीरपुरी में बुलडोजर के दर्शन हुए। निगम अधिकारियों ने ऐलान करके सड़क पर अतिक्रमणों पर बुलडोजर चलवाए और जब तक अदालत के रोक के आदेश न आ गए तब तक वे चलते रहे। हर खबर चैनल पर ये बुलडोजर सक्रिय दिखे। प्रशासन का आदेश पाकर अवैध निर्माणों को गिराते दिखे। कई दुकानें, कई दो मंजिले खोके गिराए। पुलिस तैनात रही। जिनके अतिक्रमण तोड़े गए उनकी नाराजी चैनलों में साफ दिखी।
बहरहाल, मामला सर्वोच्च अदालत गया। अदालत में पूछा गया कि क्या तोड़ने का नोटिस दिया गया था..सभी का पक्ष सुनने के बाद अदालत ने इस अभियान पर दो सप्ताह के लिए रोक लगा दी। लेकिन मीडिया में बुलडोजर चलाने की राजनीति पर बहसें जारी रहीं और यहीं नेताओं और प्रवक्ताओं ने बुलडोजर को नये ‘मानी’ दिए : किसी ने कहा कि ये बुलडोजर ‘सांप्रदायिक’ है, जो खास समुदाय को टारगेट करने के लिए चलाया जा रहा है, किसी ने कहा कि यह ‘नफरत का बुलडोजर’ है, किसी ने कहा कि चलाना है तो महंगाई, बेरोजगारी पर चलाइए, तेल के दामों पर चलाइए, कुछ ने यह तक कहा कि चलाना है तो देश के गृह मंत्री या पीएम के घर पर चलाइए..।
कहने की जरूरत नहीं कि जिस बुलडोजर को निहायत ही ‘गैरकानूनी’ और ‘अमानवीय’ औजार माना जा रहा था वही कइयों के लिए नये ‘न्याय दाता’ की तरह हो उठा। सब उसको चलाना चाहने लगे। प्रशासन ने अतिक्रमणों पर चलाया तो दूसरे उसे चलाने वालों पर चलाने वालों की मांग करने लगे और इस तरह ‘बुलडोजर’ का विरोध करने वाले भी नये ‘बुलडोजर बहादुर’ बनने लगे। देखते-देखते बुलडोजर ‘मुहावरा’ बन गया। अतिक्रमण को हटाने वाले ‘औजार’ के अलावा वह ‘बदलेखोरी’ का औजार भी बन गया। वह ‘सत्ताओं’ को तो पंसद था ही ‘सत्ताविरोधियों’ की भी हो गया। मीडिया यही करता है। वह किसी भी चीज को बार-बार दिखाकर पहले पॉपूलर बनाता है। फिर उसी को पब्लिक के ‘दिल-ओ-दिमाग’ में बिठा देता है। वह आम लोगों के रोजमर्रा के ‘शब्दकोष’ का हिस्सा बन जाता है और लोग अपने रोजमर्रा के मुहावरे की तरह उसका इस्तेमाल करने लगते हैं। इसी प्रक्रिया में आज वह बदलेखोरी का मुहावरा भी बन चला है।