भारतीय राजनीति में हालांकि यह पहली बार नहीं है और न ही यह अकेले केवल उत्तर प्रदेश का मामला है। चूंकि उत्तर प्रदेश की अहमियत देश में अधिक रही है‚ और यहां हाल ही में चुनाव संपन्न हुए हैं‚ लिहाजा उदाहरण के लिए यह देखना बेहतर है। मामला है कि आज की राजनीति किस दिशा में जा रही है‚ और किस तरह से इसका विकेंद्रीकरण और गैर–लोकतांत्रिकरण हो रहा है। सवाल यह भी है कि आखिर‚ क्या वजह है कि राजनीति में आगे आने वाले युवा अब पहले के नेताओं की तरह जनता के बीच पहचाने नहीं जातेॽ
पहले कुछ आंकड़ों को देखते हैं। एडीआर की हालिया रपट कहती है कि इस बार यूपी विधानसभा में जो नये सदस्य निवार्चित होकर आए हैं‚ उनमें से पांच ने यह घोषित किया है कि उनके ऊपर हत्या का मामला विभिन्न मामलों में लंबित है। वहीं‚ हत्या का प्रयास के मामलों को घोषित करने वाले विधायकों की संख्या २९ है। इसके अलावा महिलाओं के खिलाफ अत्याचार के मामलों की घोषणा ६ नये विधायकों ने की है। इनमें से एक पर बलात्कार का आरोप है। तीन के ऊपर पाक्सो एक्ट के तहत मामला दर्ज है। दलवार बात करें तो भाजपा के कुल २५५ में से १११ नये विधायकों ने घोषित किया है कि उनके गंभीर आरोप अदालतों में लंबित हैं। मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी के नये सदस्यों की संख्या १११ है‚ और इनमें से ७१ ने खुद के ऊपर गंभीर मामले होने की घोषणा की है। राष्ट्रीय लोकदल के कुल ८ में से ७ और ओमप्रकाश राजभर की पार्टी के ६ में से ४ ने भी इसी तरह घोषणा अपने शपथ पत्र में की है। जनसत्ता लोकतांत्रिक दल और कांग्रेस के दो–दो विधायक हैं। इन सभी ने अपने बारे में यही घोषणा की है।
सवाल उठता है कि आखिर‚ ऐसा क्यों हो रहा है कि साफ छवि के लोग राजनीति में नहीं आ रहे हैं। इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि यूपी में इस बार जो मतदान हुआ‚ वह पहले की तुलना में कम था। इस बार तो औसतन ५२–५५ फीसदी ही मतदान हुआ। मतलब यह कि इस बार जिसे जनादेश कहा जा रहा है‚ उसमें करीब–करीब आधे मतदाताओं ने मतदान में भाग ही नहीं लिया यानी यह जनादेश आधा–अधूरा जनादेश है। चूंकि भारतीय संविधान में वर्णित प्रावधानों के हिसाब से ऐसा होना विधानसभा के गठन में कोई अड़चन पैदा नहीं करता है तो इस लिहाज से कोई समस्या नहीं है। परंतु‚ सवाल तो यही है कि आखिर‚ क्या वजह है कि लोग मतदान के लिए इच्छुक नहीं दिखते। न ही सियासत में भागीदारी करना चाहते हैंॽ
दरअसल‚ इन सब सवालों का जवाब भारतीय राजनीति के अतीत में ही छिपा है। एक समय था जब देश आजाद हुआ था और लगभग सभी पार्टियों के पास ऐसा संगठन होता था जो चुनावी राजनीति में प्रत्यक्ष तौर पर तो भाग नहीं लेता था‚ लेकिन उसकी भूमिका बहुत खास होती थी। ठीक वैसे ही जैसे आज के समय में आरएसएस को देखा जा सकता है। यह संगठन स्वयं को गैर–राजनीतिक संगठन के रूप में प्रस्तुत करता है। लेकिन यह बात किसी से छिपी नहीं है कि भाजपा को मिलने वाली जीत का श्रेय सबसे अधिक इसी संगठन को जाता है। ठीक ऐसे ही कभी कांग्रेस के पास एक संगठन हुआ करता था कांग्रेस सेवा दल। कागजी तौर पर यह संगठन आज भी है। एक समय यह वह दल था‚ जिससे अंग्रेजी हुक्मरान तक डरते थे। तब इसे फौजी अनुशासन और जज्बे के लिए जाना जाता है था। कभी कांग्रेस में शामिल होने से पहले सेवा दल की ट्रेनिंग जरूरी होती थी। यहां तक कि इंदिरा गांधी ने राजीव गांधी का कांग्रेस में प्रवेश सेवा दल के माध्यम से ही कराया था।
ऐसे ही ड़ॉ. राममनोहर लोहिया ने एक संगठन बनाया था समतावादी युवजन महासभा। यह संगठन भी एक सेतु और प्रशिक्षक संगठन की भूमिका का निर्वाह करता था। और कौन भूल सकता है जयप्रकाश नारायण का संगठन छात्र संघर्ष वाहिनी‚ जिसने १९७४ के आंदोलन में केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ जमकर लोहा लिया थाॽ और कौन भूल सकता है १९७७ का वह चुनाव‚ जिसमें बड़ी संख्या में युवा पहली बार निर्वाचित होकर संसद और विधानसभाओं में आए थेॽ
दरअसल‚ वह दौर ऐसा था कि पार्टियों के पास एक संविधान होता था‚ जिसे नियमावली की संज्ञा भी दी जा सकती है। इस नियमावली में पार्टियों ने तय कर रखा था कि कोई कैसे पार्टी की सदस्यता पा सकता है‚ और उसे किस तरह पार्टी के कार्यक्रमों को आगे बढ़ाना है। यह एक तरह की प्रक्रिया थी जो नये सदस्यों को सियासत के गुर सिखाती थी। इससे फायदा यह भी होता था कि युवा बड़े उत्साह से ऐसे संगठनों में भाग लेते थे। लेकिन अब यह केवल आरएसएस के अंदर ही है‚ जिसका लाभ भाजपा को बखूबी मिल रहा है। परंतु‚ विपक्ष के पास ऐसे संगठन केवल कागज पर ही हैं। यहां तक कि वामपंथी दलों के संगठन मसलन‚ एआईएसएफ और आइसा जैसे संगठन भी पहले की तरह सक्रिय नजर नहीं आते। ऐसे में युवाओं को सियासत से जोड़ने वाली प्रक्रिया बाधित की जा रही है और प्रवेश उन्हें मिल ही रहा है‚ जिनके पास विरासत और पैसा है।
बहरहाल‚ उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में जो चुनाव परिणाम सामने आए हैं‚ वे न केवल पराजित विपक्षी दलों के लिए‚ बल्कि पूरे देश के लिए एक सबक हैं‚ जो बताते हैं कि राजनीति केवल उनके सहारे नहीं छोड़ी जा सकती जो पहले से इसके मंजे हुए खिलाड़ी रहे हैं। आज देश और पूरा विश्व नई तरह की चुनौतियों का सामना कर रहा है। इसके लिए बेहतर यही है कि सभी राजनीतिक दल तमाम क्षेत्रों के युवाओं को राजनीति में जोड़ने के लिए पहल करें ताकि राजनीति रचनात्मक हो सके। यदि ऐसा नहीं होता है तो निश्चत तौर पर यह देश के लिए घातक साबित होगा।