सरकार ने एक महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए 1 अप्रैल से पूर्वोत्तर के तीन और राज्यों असम‚ मणिपुर और नगालैंड में सशक्त बल विशेष शक्तियां अधिनियम १९५८ (अफ्स्पा) के दायरे को घटाने का फैसला लिया है। सरकार ने सही दिशा में यह कदम उठाया है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए। इससे पहले २०१५ में त्रिपुरा और २०१८ में मेघालय से इस कानून को पूरी तरह हटाया जा चुका है। इस कानून के अंतर्गत सुरक्षाबलों को बिना वारंट किसी भी नागरिक को गिरफ्तार करने का अधिकार है। अगर किसी संदिग्ध व्यक्ति की सुरक्षाबलों की गोली से मौत हो जाए तो यह कानून उन्हें अभियोजन से सुरक्षा भी प्रदान करता है। देश के बुद्धिजीवी और नागर समाज के लोग इस कानून की आलोचना करते रहे हैं। मणिपुर की मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम चानू शिमला अफ्स्पा को पूर्वोत्तर से हटाने के लिए 16 वर्षो तक भूख हड़ताल कर रहीं। मानवाधिकारवादियों का मानना है कि इस कानून से नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर कुठाराघात होता है। हालांकि यह सच है कि पूर्वोत्तर के राज्य उग्रवाद और अलगाववादी हिंसा से ग्रसित रहे हैं‚ जिसके कारण इस कानून को विस्तार मिलता रहा है। लेकिन सच यह भी है कि उग्रवाद से पीडि़त पूर्वोत्तर का शेष भारत के साथ एकीकरण में अफ्स्पा की बड़ी भूमिका भी रही है। हालांकि पिछले साल दिसम्बर में उग्रवाद विरोधी अभियान के तहत सेना की गोलियों से १४ आम लोगों की मौत हो गई थी। हाल के वर्षो में करीब ७ हजार उग्रवादियों ने समर्पण किया। इसके अतिरिक्त जनवरी २०२० को बोड़ो समझौता हुआ। ४ सितम्बर २०२२ को कार्बी–आंगलांग समझौता हुआ। जाहिर है इन समझौतों से पूर्वोत्तर में उग्रवाद समाप्त करने में मदद मिली है। इन दिनों पूर्वोत्तर के राज्यों में या तो भाजपा की या उसके गठबंधन की सरकारें हैं। केंद्र सरकार को निरंतर इस तरह के प्रयास जारी रखने चाहिए ताकि इस क्षेत्र का आर्थिक विकास हो और शांति बहाल हो और अफ्स्पा को पूरी तरह से हटाने का मार्ग प्रशस्त हो। आधुनिक और नये भारत में नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों का दमन करने वाले कानून के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए।
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