5 राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान केंद्र सरकार द्वारा डीजल–पेट्रोल व रसोई गैस के साथ ही कई आवश्यक जीवनोपयोगी वस्तुओं के कसकर बांध रखे गए दाम अब हमारी जेबें ढीली करने के लिए खुले छोड़ दिए गए हैं‚ जबकि सरकार अपना यह भोथरा हो चुका तकनीकी तर्क फिर से रटने व दोहराने लगी है कि इनमें कम–से–कम डीजल–पेट्रोल व रसोईगैस की मूल्यवृद्धि में अब उसकी कोई भूमिका ही नहीं है क्योंकि उनके निर्धारण का अधिकार तेल कम्पनियों के पास है‚ तो कई महानुभाव समझ नहीं पा रहे कि वे महंगाई के इस त्रास को समझें तो किस तरह समझेंॽ
यों‚ इसे समझने का तरीका बहुत आसान है। अलबत्ता‚ इसके लिए देश के अतीत में कुछ दशक पीछे जाना पड़ेगा। क्योंकि तभी जाना जा सकेगा कि बीती शताब्दी के आखिरी दशक में हम कैसी परिस्थितियों में भूमंडलीकरण के नाम पर उपभोक्तावाद की संस्कृति को ‘आत्मापत व अंगीकृत’ करने को बाध्य हुए थे या कैसे तत्कालीन सत्ताधीशों ने ‘देयर इज नो आल्टरनेटिव’ यानी कोई और रास्ता नहीं है। कहते हुए बरबस हमें उसकी ओर हांक दिया था। इस आश्वासन के साथ कि वह बहुत दरियादिल या कि उदार है। पिछले तीन दशकों में यह संस्कृति खूब फूलने–फलने लगी है तो यह कैसे हो सकता है कि जीवन के अन्य क्षेत्रों में तो उपभोक्तावाद एक के बाद एक मंजिलें तय करता जाए‚ लेकिन देश की राजनीति उससे सर्वथा अछूती‚ कल्याणकारी और पवित्र बनी रहेॽ नहीं हो सकता।
इसलिए हमारी राजनीति में एक अलग ही तरह का उपभोक्तावाद व्यापने लगा है और वह प्रजा‚ जिसके जनता बनने की लोकतांत्रिक प्रक्रिया अभी पूरी नहीं हो पाई थी‚ सरकारों और उनका नेतृत्व करने वाली पार्टियों के राजनीतिक उपभोक्तावाद की शिकार हो गई है। यही कारण है कि जब भी चुनाव आते हैं‚ सरकारें और सत्तारूढ़ पार्टियाँ उससे अपने उपभोक्ताओं जैसा सलूक करती हैं और वोट पाने के लिए ‘बनाने’ के सिलसिले में जैसे और जिस भी तरह से संभव होता है‚ उससे साम–दाम–दंड–भेद सब बरतने लग जाती हैं। विडम्बना यह कि विपक्षी दलों को‚ जो अब सत्तादलों के नीतिगत नहीं बल्कि संख्या आधारित विपक्ष भर रह गए हैं‚ इस स्थिति से कोई असुविधा है तो केवल यही कि वे इस उपभोक्तावाद में अपनी जगह पक्की नहीं कर पा रहे। फिर भी उनके सपने बरकरार हैं कि एक दिन अपनी विफलता को सफलता में बदल डालेंगे। यही कारण है कि केंद्र सरकार और उसका नेतृत्व कर रही भारतीय जनता पार्टी ने मान लिया है कि अब विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने के बाद वह अगले चुनाव तक सुभीते से अपनी प्रजा को मूल्यवृद्धि के हवाले किए रह सकती है‚ क्योंकि मतदान कर चुकने के बाद वह उन्हें फिलहाल‚ कोई राजनीतिक नुकसान पहंुचा पाने की स्थिति में नहीं रह गई है। इस कारण और कि प्रजा के तौर पर वह उनकी आज्ञा के अनुपालन के लिए ही होकर रह गई है और उसे समझा दिया गया है कि उनकी दी कई सहूलियतों की कृतज्ञ उपभोक्ता बनी रहने में ही उसका भला है।
इसीलिए सोशल मीडिया पर सरकार कहें या महंगाई के समर्थकों के ‘तर्क’ इस हद तक पहंुच गए हैं कि अब महंगाई का मुद्दा उठाने या उसका रोना रोने का कोई मतलब ही नहीं है‚ क्योंकि चुनाव में मतदाताओं ने उसे नोटिस में नहीं लिया और भाजपा उसको शिकस्त देकर चार राज्यों में चुनाव जीतकर वहां अपनी सत्ता बचाने में कामयाब रही है। जैसे कि चुनाव जीतने का एक अर्थ यह भी होता हो कि उसके बाद जीतने वालों को अनेक दूसरी अनैतिकताओं के साथ लोगों की जेब पर डाके डालने की छूट भी हासिल रहेगी‚ लेकिन दूसरे पहलू से देखें तो इस डाके पर सरकार और सरकारी पार्टी की निर्भरता को भी आसानी से समझ सकते हैं। चुनाव के दौरान उन्होंने जिनकी शह व समर्थन से अपने राजनीतिक उपभोक्तावाद को परवान चढ़ाया‚ उनको उनका रिटर्न गिफ्ट तो उन्हें देना ही है। भले ही इसके लिए ‘जो मांगोगे‚ वही मिलेगा’ की तर्ज पर उसी प्रजा को‚ जिसकी धार्मिक भावनाओं को उन्होंने दुर्भावनाओं तक ले जाकर सहलाया व भुनाकर वोट कमाया‚ भूखे पेट भजन करवाना और महंगाई से सामना करवाना पड़े। गौर कीजिएः देश में दूध व खाद्य तेल वगैरह के दाम मतदान के फौरन बाद ही बढ़ चुके थे‚ जबकि होली जैसा त्योहार सर पर था। अब सब्जियां भी महंगी हो रही हैं और रूस–यूक्रेन युद्ध से पैदा हुए संकट के बहाने डीजल–पेट्रोल व रसोई गैस के दाम भी बेतहाशा बढ़ा दिए गए हैं।
घरेलू रसोई गैस सिलेंडर के दामों में एक झटके में ५० रु पये की बढ़ोतरी कर दी गई है‚ जिसके बाद कई शहरों में उसकी कीमत एक हजार के आसपास या पार पहंुच गई है। इसी तरह पेट्रोल और डीजल के दामों में बढ़ोतरी का जो सिलसिला चुनावी गहमागहमी वाले १३७ दिनों के बाद शुरू हुआ है‚ इस बात की पूरी आशंका है कि वह इस साल के अंत में प्रस्तावित अगले विधानसभा चुनावों तक जारी रहे। उसके बाद ‘राजनीतिक उपभोंक्ताओं’ को फिर से खुश करने की मजबूरी आ पड़े तो शायद वह थोड़ा थम जाए। इससे पहले डीजल की थोक खरीदारी में सीधे २५ रु पये लीटर की बढ़त कर दी गई थी। तब रूस–यूक्रेन युद्ध से उत्पन्न स्थितियों को इसका कारण बताते हुए सरकार की ओर से कहा गया था कि इस वृद्धि का खुदरा कीमतों पर कोई असर नहीं पड़ेगा‚ लेकिन अब जाहिर हो चुका है कि वह बात लोगों को गुमराह करने या झांसे में रखने मात्र के लिए कही गई और निरंतर शातिर व चालाक होते जा रहे राजनीतिक उपभोक्तावाद का नया नमूना थी।
जो भी हो‚ महंगाई का एक के बाद दूसरा रेला उन लोगों के लिए कहर से कम नहीं है‚ जो दो साल पहले कोरोना के कारण देशव्यापी लॉकडाउन की मार से अभी तक उबर नहीं पाए हैं। लॉकडाउन में बड़ी संख्या में लोगों को एक झटके में बेघर–बेदर और बेरोजगार होना पड़ा। जबकि करोड़ों लोग इस कारण गरीबी रेखा से नीचे आ गए। खैर‚ कभी न कभी तो राजनीतिक उपभोक्ताओं को भी यह सवाल मथने ही लग जाएगा कि जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल सस्ता होने का लाभ उनको तुरंत नहीं मिलता तो महंगे होने पर नुकसान तुरंत क्यों उठाना पड़ता हैॽ फिरॽ