महत्वपूर्ण राजनैतिक घटनाक्रम में उत्तर प्रदेश की नवनियुक्त भाजपा सरकार ने अपनी परंपरा से हटते हुए मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय के प्रश्न को दृष्टिगोचर रखते हुए देशज पसमांदा समाज से आने वाले अपने कैडर दानिश आजाद को मंत्रालय में जगह दी है। ज्ञात रहे कि अब तक भाजपा में शिया सैय्यद ही ऐसे उच्च पदों पर आसीन होते रहे हैं। भारत के राजनैतिक इतिहास में यह दूसरी घटना है जहां एक राष्ट्रीय स्तर की पार्टी ने मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय को ध्यान में रखते हुए जातीय संरचना में पिछड़े कहे जाने वाले समाज को भागीदारी दी है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान मुस्लिम विमर्श की वकालत करती मुस्लिम लीग के विरोध में उस समय के आसिम बिहारी के नेतृत्व में मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय के लिए संघर्षरत जमीयतुल मोमिनीन (मोमिन कॉन्फ्रेंस) ने संगठन और पसमांदा समाज की साधनविहीनता (उस समय वयस्क मतदान का अधिकार नहीं था और पढ़े–लिखे एवं पैसे वाले लोगों को ही मतदान का हक था जिससे पिछड़ा समाज लगभग वंचित था) के बावजूद मुस्लिम लीग को १९४६ के चुनाव में अनेक सीटों पर मात दी थी जिसका संज्ञान लेते हुए सरदार पटेल ने स्वतंत्रता के बाद बिहार में बनने वाली सरकार में कांग्रेस की अशराफ लीडरशिप के विरोध के बावजूद मोमिन कॉन्फ्रेंस के दो साथियों नूर मुहम्मद और अब्दुल कय्यूम अंसारी को कांग्रेस की शपथ पर हस्ताक्षर कराए बिना मंत्रिमंडल में शामिल करवाया था।
ऐसा नहीं है कि भाजपा ने चुनाव जीतने के बाद ही इस ओर ध्यान दिया है। चुनाव से बहुत पहले ही उसने अल्पसंख्यक आयोग‚ मदरसा बोर्ड और उर्दू अकादमी के अध्यक्ष पदों पर पसमांदा समाज से आने वालों की नियुक्ति कर अपनी मंशा स्पष्ट कर दी थी। यह बात ध्यान देने की है कि अब तक इन अल्पसंख्यक संस्थानों के अध्यक्ष पद पर पारंपरिक रूप से लगभग सभी पार्टियों द्वारा मुस्लिम समाज के उच्च शासकवर्गीय अशराफ मुसलमानों को ही नियुक्त किया जाता रहा है। हुनर हाट के आयोजन के माध्यम से भी मुस्लिम समाज की वंचित पिछड़ी जातियों को जोड़ने का प्रयास किया गया। मुस्लिम पिछड़ी जातियों में अधिकतर कामगर जातियां आती हैं‚ जो हुनर हाट जैसे कार्यक्रम से सीधे संबंधित हैं। आगामी लोक सभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए यूपी मंत्रीमंडल में पसमांदा को शामिल कर इस दिशा में एक और कदम बढ़ाया गया है। ज्ञात रहे कि पसमांदा मुसलमान कुल मुस्लिम संख्या का 90% हैं। इनमें से कुछ प्रतिशत को भी पार्टी प्रभावित कर ले गई तो मुस्लिमों की बड़ी संख्या का वोट उसके पक्ष में हो सकता है।
पसमांदा आंदोलन के साथी चुनाव के दौरान लगातार मांग कर रहे थे कि पूर्वांचल की बुनकर बेल्ट से बुनकर को टिकट दिया जाए लेकिन प्रमुख विपक्षी पार्टी ने बुनकरों का वोट तो भरपूर लिया किंतु टिकट देना गवारा नहीं किया। दानिश आजाद पूर्वांचल के बुनकर समाज से आते हैं‚ जहां बुनकरों की बड़ी संख्या आबाद है। दानिश आजाद के मंत्रीमंडल में शामिल होने के साथ ही मुस्लिम समाज के सामाजिक न्याय का प्रश्न एक बार फिर चर्चा में आ गया है। सोशल मीडिया में खुलेआम अशराफ वर्ग के नौजवानों और बुजुर्गों‚ जिनमें खुद को सेक्युलर‚ लिबरल‚ कट्टर धार्मिक और राष्ट्रवादी कहने वाले लगभग सभी प्रकार के लोग हैं‚ द्वारा जातिसूचक अपमानजनक शब्द ‘जुलाहा’ का प्रयोग कर पूरे पसमांदा समाज के मान–सम्मान को तार–तार करने का प्रयास किया जा रहा है। इसे आप चंद लोगों के मानसिक दिवालियापन का नाम दे सकते हैं‚ लेकिन समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता शहजाद अब्बास द्वारा एक चैनल डिबेट में यह कहना कि शिया को भागीदारी न देकर पसमांदा के नाम पर ऐसे चेहरे को मंत्री बनाना जिसे कोई नहीं जानता‚ मुसलमानों का अपमान है। इससे अर्थ निकलता है कि सैय्यद मंत्री बने तो मुसलमानों का सम्मान और देशज पसमांदा बने तो मुसलमानों का अपमान है। एक यूट्यूब चैनल पर वरिष्ठ पत्रकार सैय्यद कासिम ने बुनकर समाज को मुसलमानों में आर्थिक और शैक्षिक रूप से सबसे मजबूत बिरादरी बताया। उन्हें कमजोर तबका मानने से इंकार किया जबकि यह पूर्णतः सत्य से परे है। मंडल कमीशन‚ रंगनाथ मिश्र कमीशन और सच्चर कमेटी की रिपोर्टों के आधार पर मुस्लिम बुनकर समाज हर रूप से पिछड़ा है‚ और इसी कारण केंद्र और राज्य की आरक्षण लिस्ट में अन्य पिछड़े वर्ग में आता है जबकि हिंदू समाज का बुनकर वर्ग अनुसूचित जाति में आता है।
उर्दू मीडिया भी दानिश आजाद से आरएसएस की विचाराधारा से संबंधित असहज सवाल पूछ रहा है। शायद ही कभी उर्दू मीडिया ने भाजपा के किसी अशराफ लीडर से ऐसे सवाल किए हों। क्या आपने कभी देखा है कि किसी हिंदू पिछड़े दलित को राजनैतिक भागीदारी मिलने पर सवर्ण समाज की तरफ से सोशल मीडिया पर इस प्रकार से गाली–गलौज की जाती हो या किसी राजनैतिक पार्टी के प्रवक्ता द्वारा एक वंचित को राजनैतिक भागीदारी मिलने पर हिंदू समाज का अपमान बताया जाता होॽ जबकि यही लोग इससे पहले शिया–सैय्यद लोगों के मंत्री बनाए जाने पर लगभग खामोश रहा करते थे।
कुशीनगर के रामकोला में भाजपा कार्यकर्ता बाबर की हत्या के पीछे यही मानसिकता उत्प्रेरक की भूमिका में प्रतीत होती है। इसका एक ऐतिहासिक पक्ष भी है‚ १९४६ के इलेक्शन में कानपुर में एक पसमांदा कार्यकर्ता अब्दुल्लाह की मुस्लिम लीग के खिलाफ प्रचार करने के कारण हत्या करवा दी गई थी। होना तो यह चाहिए था कि मुस्लिम समाज का नेतृत्व करने वाले अशराफ वर्ग को अपने द्वारा संचालित संस्थाएं जैसे मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड‚ इमारते शरिया आदि में मुस्लिम समाज के वंचित तबकों को भी भागीदारी देकर सामाजिक न्याय की स्थापना करनी चाहिए न कि लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार में पसमांदा की भागीदारी पर इस तरह का क्षोभ प्रकट करे। इस पूरे प्रकरण से यह बात पूरी तरह साफ हो जाती है कि मुस्लिम समाज में जातिवाद की जड़ें कितनी गहरी हैं‚ और समाज में सामाजिक न्याय की तत्काल कितनी गंभीर रूप से आवश्यकता है।