अमेरिका को अफगानिस्तान से निकलने में दो दशक लग गए थे। ऐसे में वो इस चिंता को जायज ठहरा सकता है कि रूस के खिलाफ सेना उतारने का मतलब एक अंतहीन संघर्ष की शुरुआत बन सकता है। लेकिन बाकी दुनिया अमेरिका को लेकर अपनी सोच बनाने के लिए स्वतंत्र है। और वो सोच इसी दिशा में मजबूत होती दिख रही है कि एक देश जो अपनी आर्थिक शक्ति और लोकतांत्रिक सत्ता के दम पर सुपर पावर होने का दम भरता रहा है‚ वो पिछली आधी सदी या उससे भी ज्यादा वक्त के दौरान खुद को सबसे कमजोर और सबसे खराब स्थिति में दिख रहा है। और इसके लिए अमेरिका स्वयं ही जिम्मेदार है
उक्रेन में रूस का आक्रमण अब १८वें दिन में प्रवेश कर रहा है। यूक्रेन के कई शहरों को घेर लिया गया है। दोनों देशों के विदेश मंत्रियों के बीच बातचीत अभी भी गतिरोध पर है। जर्मन चांसलर ओलाफ शोल्ज और फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों भी व्लादिमीर पुतिन के साथ नये दौर की बातचीत कर रहे हैं। उधर यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की ने अपने सबसे ताजा वीडियो संदेश में रूसी माताओं से अपने बच्चों को युद्ध के मैदान में नहीं भेजने की अपील की। इस सबके बीच संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि अब तक २५ लाख से ज्यादा यूक्रेनी महिलाएं‚ बच्चे और पुरु ष पड़ोसी देशों में शरणार्थी बन चुके हैं। भारत ने इस गंभीर मानवीय स्थिति पर बिना देर किए तत्काल एक्शन की मांग की है।
लेकिन यह एक्शन कौन लेगाॽ जाहिर तौर पर नजरें अमेरिका पर लगी हैं‚ जिसे यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की पिछले दो हफ्तों में नाटो के साथ मिलकर युद्ध भड़काने के लिए कई बार कठघरे में खड़ा कर चुके हैं। अमेरिका ने अब रूसी बॉर्डर पर अपने १२ हजार फौजियों को रवाना किया है‚ जो लातविया‚ एस्टोनिया‚ लिथुआनिया और रोमानिया जैसे पड़ोसी देशों में तैनात होकर रूस की घेराबंदी करेंगे। यह सब करने के बाद भी अमेरिका अपनी बात पर कायम है कि उनका देश यूक्रेन में युद्ध नहीं लड़ेगा क्योंकि ऐसा होने पर तीसरे विश्व युद्ध का खतरा बढ़ जाएगा।
क्या अमेरिका को वाकई तीसरे विश्व युद्ध की चिंता सता रही हैॽ या इस चिंता के पीछे छिपकर दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति अपनी कमजोरी को छुपा रही हैॽ दरअसल‚ पिछले १८ दिनों का सूरतेहाल अब ऐसे कई वाकयों का दस्तावेज बन गया है‚ जो इस बात की तस्दीक कर रहे हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन लगातार पुतिन के सामने कमजोर पड़ते जा रहे हैं।
यह बात तो समझ आती है कि कोई भी महाशक्ति अचूक और सर्वशक्तिमान नहीं होती‚ लेकिन यह बात गले नहीं उतरती कि यूक्रेन में अमेरिका सैकड़ों मिलियन डॉलर के हथियार भेज सकता है‚ लेकिन अपने सैनिकों को नहीं भेज सकता। उसने व्यापक आर्थिक प्रतिबंधों को स्थापित करने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय गठबंधन की स्थापना की है‚ और तकनीकी कंपनियों और फीफा और ओलंपिक जैसे वैश्विक संगठनों को रूस के सांस्कृतिक अलगाव के लिए प्रोत्साहित किया है। लेकिन अगर दुनिया की सबसे बड़ी सैन्य और सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था होने के बाद भी अमेरिका रूस को युद्ध से रोकने में सफल नहीं हो पाया तो ऐसी शक्ति का क्या फायदाॽ किसी दीमक की तरह रूस हर दिन यूक्रेन के नये क्षेत्र में घुसपैठ कर रहा है‚ और अमेरिका केवल बयान जारी कर रहा है।
मेरा मानना है कि महाशक्ति कहलाने का अधिकार उसी देश को मिलना चाहिए जो अपनी लड़ाई चुनने का साहस दिखा सके और कठिन विकल्प होने के बाद भी मदद से पीछे न हटे। इतिहास गवाह है कि अमेरिका अब तक यही नारा बुलंद करता रहा है कि उसने कभी युद्ध नहीं हारा और न ही दुश्मन से कभी समझौता किया। रूस–यूक्रेन विवाद इन दोनों दावों को गलत साबित कर रहा है।
इसमें कोई शक नहीं कि रूस ने यूक्रेन पर युद्ध थोपकर उसकी संप्रभुता और अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का उल्लंघन किया है। लेकिन क्या पिछले कई दशकों से नाटो की सेना को रूस की आपत्तियों के बावजूद उसकी सीमाओं में धकेलना अदूरदर्शी और हेकड़ी दिखाने वाला कदम नहीं थाॽ रूस पिछले एक साल से यूक्रेन की सीमाओं पर अपना सैन्य जमावड़ा बढ़ा रहा था‚ तब अमेरिका क्या कर रहा थाॽ वियतनाम‚ इराक‚ दक्षिण और मध्य अमेरिका‚ मध्य–पूर्व‚ अफगानिस्तान में हस्तक्षेप अगर पाखंड नहीं था‚ तो फिर अमेरिका यही कदम यूक्रेन में उठाने से क्यों हिचक रहा हैॽ दरअसल‚ अमेरिका और नाटो का रुख पिछली आधी सदी से इन सभी वास्तविकताओं और संभावनाओं को अनसुना करने का रहा है। यूक्रेन में विकल्पों की कमी इसी अदूरदशता का नतीजा है‚ जिसने पश्चिम को अब ऐसी स्थिति में ला खड़ा किया है‚ जहां यूक्रेन के हालात अब उसके नियंत्रण से बाहर जा चुके हैं।
इसको रूस के खिलाफ अब तक उठाए गए कदमों से भी समझा जा सकता है। अमेरिका और यूरोप ने रूस के खिलाफ आर्थिक युद्ध छेड़ने का दावा किया है। लेकिन यहां भी एक पेंच है। अमेरिका को अगर दुनिया का नेतृत्व करने का इतना ही शौक है‚ तो वो यह बताए कि तेल की अर्थव्यवस्था या जलवायु परिवर्तन जैसे संकटों से निपटने की उसकी वैश्विक नीति क्या हैॽ बहुतों को यह विषयांतर लग सकता है‚ लेकिन रूस पर प्रतिबंध लगाकर अमेरिका दरअसल‚ अपनी ही विफलता पर पर्दा डाल रहा है क्योंकि हकीकत यह है कि उसने इन दोनों मोर्चों पर ऐसा कुछ नहीं किया कि दुनिया की रूस पर निर्भरता को खत्म या कम ही किया जा सके। तेल आज दुनिया की जरूरत है‚ और गैस यूरोप में ‘ऑक्सीजन’ की जगह ले चुकी है। इसलिए रूस पर प्रतिबंध का असर दिखने में तो अभी कुछ वक्त लगेगा‚ लेकिन अंतरराष्ट्रीय बाजार जिस हद तक रूस से मिलने वाले ऊर्जा संसाधनों पर निर्भर है‚ उसमें ये प्रतिबंध रूस से पहले बाकी दुनिया को ही परेशान करेंगे।
इसलिए अब जबकि कहा जा रहा है कि अमेरिका एक परमाणु महाशक्ति के साथ संभावित टकराव में फंस गया है‚ तो यह भी जान लीजिए कि यह पूरा नहीं‚ बल्कि आधा सच है। पूरा सच यह है कि अमेरिका अब एक नहीं‚ बल्कि दो–दो परमाणु महाशक्तियों के बीच फंस गया है‚ और अमेरिका का ये दूसरा सिरदर्द है चीन। रूस और चीन पिछले काफी वक्त से तेजी से एक साथ काम कर रहे हैं। यूक्रेन के मामले में चीन ने खुलकर रूस का समर्थन किया है। तो क्या यूक्रेन में आगे बढ़ने से झिझक रहे अमेरिका को आशंका है कि ये दोनों मिलकर उसके खिलाफ दोहरे हमले कर सकते हैं। इस आशंका को बिल्कुल झुठलाया भी नहीं जा सकता। अमेरिका के सामने यूरोप और इंडो–पैसिफिक में एक साथ दो जुनूनी शक्तियों से अपनी प्रतिष्ठा के दमन का गंभीर खतरा खड़ा हो गया है। पिछले कुछ दिनों में चीन ने यूरोप और मध्य–पूर्व में सैन्य अभ्यास किया है। ऐसे में उसके साथ भिड़ने का मतलब होगा केवल एशिया में ही नहीं‚ बल्कि वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा करना। अब यह देखने वाली बात होगी कि यूक्रेन में अमेरिका की कमजोर प्रतिक्रिया क्या ताइवान को लेकर चीन के मंसूबों को कोई नई ताकत देने का काम करेगीॽ
तो आखिर दुनिया में अमेरिका के भविष्य के लिए इस युद्ध का क्या मतलब हैॽ वैसे इस बारे में अभी कोई निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी‚ लेकिन जो हालात हैं‚ वो इस इशारे के लिए पर्याप्त हैं कि अमेरिका की शक्ति की भी सीमाएं हैं। हो सकता है कि रूस के खिलाफ एक नये युद्ध में अपने सैनिकों को झोंकने से इनकार कर बाइडेन ने अमेरिका के हक में अच्छा फैसला लिया हो। आखिर‚ दूध का जला छाछ भी फूंक मार कर पीता है। अमेरिका को अफगानिस्तान से निकलने में दो दशक लग गए थे। ऐसे में वो इस चिंता को जायज ठहरा सकता है कि रूस के खिलाफ सेना उतारने का मतलब एक अंतहीन संघर्ष की शुरुआत बन सकता है। लेकिन बाकी दुनिया अमेरिका को लेकर अपनी सोच बनाने के लिए स्वतंत्र है। और वो सोच इसी दिशा में मजबूत होती दिख रही है कि एक देश जो अपनी आर्थिक शक्ति और लोकतांत्रिक सत्ता के दम पर सुपर पावर होने का दम भरता रहा है‚ वो पिछली आधी सदी या उससे भी ज्यादा वक्त के दौरान खुद को सबसे कमजोर और सबसे खराब स्थिति में दिख रहा है। और इसके लिए अमेरिका स्वयं ही जिम्मेदार है।