तिनका–तिनका जमा करके आशियाना बनता है। कभी–कभार ये आशियाने प्राकृतिक आपदाओं की भेंट चढ़ जाते हैं‚ जिन पर इंसान का कोई बस नहीं चलता। अलबत्ता‚ लोगों की जिंदगी भर की जमा पूंजी से खड़ी होने वाली इमारत अगर घोर मानवीय लापरवाही‚ लालच और छल–कपट की भेंट चढ़ जाए तो यह नाकाबिल–ए–माफी जुर्म है। ऐसे में नोएडा स्थित सुपरटेक ट्विन टॉवर को जमींदोज करने को लेकर सुप्रीम कोर्ट की सख्ती निस्संदेह एक नजीर साबित होगी। इससे अपना घर का सपना देखने वालों को ठगने वाले बिल्डरों और उनके साथ मिलीभगत करने वाले भ्रष्ट अधिकारियों को कठोर संदेश जाएगा। अपने सिर पर अदद एक छत का सपना देेखने वालों के सपने पर तुषारापात नहीं होने पाएगा। साथ ही‚ यह भी सुनिश्चित होगा कि भविष्य में कोई भी बिल्ड़र लोगों की भावनाओं से खिलवाड़़ न करने पाए।
अदालत की सख्ती के बाद अब इस इमारत की ध्वस्तीकरण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। हाल ही में दक्षिण अमेरिका के दो विशेषज्ञ इसके निरीक्षण के लिए पहुंचे। इस काम की जिम्मेदारी न्यू ओखला इंड्ट्रिरयल डवलपमेंट अथॉरिटी (नोएडा) के जरिए एडिफिस कंपनी को दी गई है। उसके इंजीनियर्स और सैकड़ों मजदूर पहले ही एपेक्स और स्यान नामक इन जुड़वा टॉवरों की दीवार को गिराने और खिड़कियों‚ दरवाजों एवं ग्रिल को निकालने का काम कर रहे हैं। इनमें इस्तेमाल इट‚ लकड़ी‚ लोहे और स्टील को हटाया जा रहा है ताकि इन्हें धवस्त करते समय नुकसान को कम से कम किया जा सके। इसको आगागी २२ मई को एक झटके के साथ विस्फोट करके गिरा दिया जाएगा। विस्फोटकों के लिए इमारतों में छेद बनाए जा रहे हैं।
अब जबकि सुपरटेक के एमरॉल्ड कोर्ट प्रोजेक्ट के इन दोनों टॉवरों के ध्वस्तीकरण की उल्टी गिनती शुरू हो गई है‚ तो बहुत से लोगों को इनका मोह लग रहा है। वैसे तो अदालत ने इनमें बने फ्लैट्स के खरीदारों को उनकी रकम १२ फीसद ब्याज समेत लौटाने का आदेश देकर बड़ी राहत दी है। फिर भी उनमें से कई लोगों को इस बात का मलाल है कि आखिर‚ उनसे गलती कहां हुई। उन्होंने अथॉरिटी का स्वीकृत लेऑउट और प्रोजेक्ट देखकर ही अपने घर का सपना संजोया था। कुछ लोगों का ऐसा सोचना भी वाजिब है कि इतना बड़ा निर्माण होने के बाद तोड़ना उचित नहीं लगता। इसको तोड़ने और मलबा हटाने में भी १०–२० करोड़ रु पये खर्च होने का अंदाजा लगाया जा रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर‚ ऐसी नौबत आती ही क्यों हैॽ
वैसे दिल्ली–एनसीआर में बिल्डरों द्वारा अवैध निर्माण के जरिए लोगों को ठगने का यह कोई पहला वाकेया नहीं है। केवल राजधानी दिल्ली में १७०० से ऊपर अनाधिकृत कॉलोनियां हैं। शहर की लगभग ३० प्रतिशत आबादी इन्हीं कॉलोनियों में निवास करती है। दिल्ली के अलावा नोएडा‚ ग्रेटर नोएडा और गाजियाबाद में आम्रपाली‚ यूनिटेक‚ पार्श्वनाथ समेत कई बड़े बिल्डर्स को उनके विभिन्न प्रोजेक्ट्स में कई बार डिफॉल्टर पाया गया। इन्हीं करतूतों की वजह से रियल इस्टेट के कई बड़े खिलाड़ी आज या तो सलाखों के पीछे हैं‚ या फिर फरार हैं।
जाहिर है कि ऐसा दुस्साहस वे विकास प्राधिकरणों और दीगर निर्माण एजेंसियों के अधिकारियों की मिलीभगत से कर पाते हैं। कह सकते हैं कि नेताओं‚ भ्रष्ट अधिकारियों और बिल्ड़रों का तिगड़्ड़ा यह सब किए दे रहा है। सुपरटेक के एमरॉल्ड कोर्ट प्रोजेक्ट का मामला भी इससे कुछ अलग नहीं है। मूलतः इसके तहत भूतल समेत ९ फ्लोर के १४ टॉवर बनने थे लेकिन समय के साथ–साथ बिल्डरों के बढ़ते लालच की वजह से इसके टॉवर और फ्लोर‚ दोनों बढ़ते गए। इस कदर कि उन्होंने ४० मंजिला ट्विन टॉवर बना ड़ाले। न कोई अनुमति और न नक्शे आदि की फिक्र। इस प्रकार नियम विरुद्धकार्य किया गया। प्रावधान के अनुसार बिल्डरों को आरडब्ल्यूए की स्वीकृति लेनी चाहिए थी जिसकी अनदेखी की गई। यही नहीं‚ नेशनल बिल्डिंग कोड के दो आवासीय टॉवरों के बीच १६ मीटर की दूरी का भी उल्लंघन किया गया। स्थानीय आरडब्ल्यूए के विरोध को गंभीरता से लिया गया होता तो भी बनने से ही पहले इन ट्विन टॉवर्स में हो रहे नियमों के उल्लंघन को दूर कर लिया गया होता।
काबिलेजिक्र है कि रियल इस्टेट सेक्टर को बढ़ावा देने के लिए रेरा कानून तो अभी चंद बरस पहले ही पारित हुआ है। ऐसे में यह दलील बेदम लगती है कि इससे अवैध निर्माणों को बल मिला। उसके पहले से ही आर्थिक प्रगति के साथ इस क्षेत्र को पंख लग गए थे। उसी दौरान कुकुरमुत्ते की तरह अवैध निर्माण वजूद में आने लगे। इन अवैध निर्माणों पर अंकुश लगाने के लिए पहले से ही नियम–कानून मौजूद हैं लेकिन जरूरत इस बात की है कि सिंगापुर जैसे बहुमंजिला इमारतों वाले देशों की तरह हमारे यहां भी निर्माण से पहले ही बिल्डरों को ऐसा कोई सर्टिफिकेट या प्रमाण दिया जाना चाहिए जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि अब बनने वाला भवन किसी भी हालत में तोड़ा नहीं जाएगा। दिल्ली–एनसीआर में यह पहला मौका होगा जब किसी इतनी बड़ी इमारत को विस्फोटकों के जरिए जमींदोज किया जाएगा जिसकी धमक दूर तक जाएगी। इस तरह की सख्त कार्रवाई से अपना घर का सपना देखनों वालों पर कुठाराघात नहीं होगा।
जब हम ‘भारत के लोग’ अपना नया स्वतंत्रता दिवस मना रहे हैं‚ बाबा नागार्जुन की एक प्रसिद्ध कविता का वह सवाल पहले से ज्यादा प्रासंगिक हो गया है‚ जिसमें पहले वे पूछते हैं किसकी है जनवरी‚ किसका अगस्त हैॽ बाबा अपने सवाल को कौन त्रस्त‚ कौन पस्त और कौन मस्त तक भी ले जाते हैं‚ तो लगता है कि उन्हें आज की तारीख में हमारे सामने उपस्थित विकट हालात का पहले से इल्म था।
इन हालात की विडम्बना देखिएः एक ओर तो अब हमारे नेता देश को समता‚ स्वतंत्रता और न्याय पर आधारित संपूर्ण प्रभुत्व–संपन्न‚ समाजवादी‚ पंथनिरपेक्ष‚ लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने का २६ नवम्बर‚ १९४९ को अंगीकृत‚ अधिनियमित और आत्मापत संकल्प को संविधान की पोथियों में भी चैन से नहीं रहने देना चाहते; और दूसरी ओर गैर–बराबरी का भस्मासुर न सिर्फ हमारी बल्कि दुनिया भर की जनतांत्रिक शक्तियों के सिर पर अपना हाथ रखकर उन्हें धमकाने पर आमादा है कि लोकतंत्र की अपनी परिकल्पनाओं को लेकर किसी मुगालते में न रहें।
अमीरी का जाया यह असुर उनके सारे के सारे मूल्यों को तहस–नहस करने का मंसूबा लिए उन्मत्त होकर आगे बढ़ा आ रहा है‚ और आरजू या मिनती कुछ भी सुनने के मूड में नहीं है। अभी जब हम अपना पिछला गणतंत्र दिवस मनाने वाले थे‚ गरीबी उन्मूलन के लिए काम करने का दावा करने वाले ऑक्सफेम इंटरनेशनल ने एक सर्वेक्षण में बताया गया था कि आर्थिक विषमता की‚ जो सभी तरह की स्वतंत्रताओं और इंसाफों की साझा दुश्मन है‚ दुनिया भर में ऐसी पौ–बारह हो गई है कि पिछले साल बढ़ी ७६२ अरब डॉलर की संपत्ति का ८२ फीसदी हिस्सा एक प्रतिशत धनकुबेरों के कब्जे में चला गया है‚ अधिसंख्य आबादी को जस की तस बदहाल रखते हुए। इस संपत्ति के रूप में धनकुबेरों ने गरीबी को सात बार सारी दुनिया से खत्म कर सकने का सार्मथ्य इस एक साल में ही अपनी मुट्ठी में कर लिया तो क्या आश्चर्य कि गरीबों के लिए ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’ का अर्थ एक संचार सेवाप्रदाता कंपनी के झांसे का शिकार होना भर हो गया है। तिस पर अनर्थ यह कि ५० प्रतिशत अत्यंत गरीब आबादी को आर्थिक वृद्धि में कतई कोई हिस्सा नहीं मिल पाया है‚ जबकि अरबपतियों की संख्या बढ़कर २‚०४३ हो गई है। इनमें ९० फीसदी पुरु ष हैं यानी यह आर्थिक ही नहीं लैंगिक असमानता का भी मामला है‚ पितृसत्ता के नये सिरे से मजबूत होने का भी। बताने की जरूरत नहीं कि यह अनर्थ भूमंडलीकरण की वर्चस्ववादी नीतियों से पोषित अर्थ नीति का अदना–सा ‘करिश्मा’ है‚ और यह गरीबों के ही नहीं‚ बढ़ते धनकुबेरों के प्रतिद्वंद्वियों के लिए भी हादसे से कम नहीं है क्योंकि इन कुबेरों ने यह बढ़त कठिन परिश्रम और नवाचार से नहीं‚ बल्कि संरक्षण‚ एकाधिकार‚ विरासत और सरकारों के साथ साठगांठ के बूते कर चोरी‚ श्रमिकों के अधिकारों के हनन और ऑटोमेशन की राह चलकर स्पर्धा का बेहद अनैतिक माहौल बनाकर पाई है। निश्चित ही यह इस अर्थनी ति की निष्फलता का द्योतक है क्योंकि इन कुबेरों द्वारा संपत्ति में ढाल ली गई पूंजी अंततः अर्थ तंत्र से बाहर होकर पूरी तरह अनुत्पादक हो जानी है‚ और उसे इस तथ्य से कोई फर्क नहीं पड़ना कि कई अरब गरीब आबादी बेहद खतरनाक परिस्थितियों में भी ज्यादा देर तक काम करने और अधिकारों के बिना गुजर–बसर करने को मजबूर है।
अपने देश की बात करें तो यहां २०१७ में उत्पन्न कुल संपत्ति का ७३ प्रतिशत हिस्सा ही एक प्रतिशत सबसे अमीरों के नाम रहा है। यह विश्वव्यापी औसत ८२ से कम है‚ लेकिन देश की जिस अर्थव्यवस्था के अभी हाल तक ‘दुनिया की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था’ होने का दावा किया जाता रहा है‚ उसमें अमीरों द्वारा सब–कुछ अपने कब्जे में करते जाने की रफ्तार इतनी तेज हो गई है कि २०१६ में ५८ प्रतिशत संपत्ति के स्वामी एक प्रतिशत अमीरों के कब्जे में अब ७३ प्रतिशत संपत्ति है यानी २०१७ में उनकी कुल संपत्ति में २०.७ लाख करोड़ की बढ़ोतरी हुई‚ जो उसके पिछले साल ४.८९ लाख करोड़ रु पये ही थी। चूंकि हमने बेरोकटोक भूमंडलीकरण को सिर–माथे लेकर अनेकानेक विदेशी कंपनियों को देश में कमाया मुनाफा देश से बाहर ले जाने की छूट भी दे रखी है‚ इसलिए विदेशी अरबपतियों को खरबपति बनाने में भी हमारा कुछ कम योगदान नहीं है। ऐसे में यह समझने के लिए अर्थशास्त्र की बारीकियों में बहुत गहरे पैठने की जरूरत नहीं कि यह अमीरी ज्यादा से ज्यादा लोगों को आर्थिक विकास का फायदा देकर यानी ‘सबका साथ‚ सबका विकास’ के नारे को सदाशयता से जमीन पर उतारकर संभव ही नहीं थी।
इसलिए विकास के सारे लाभों को लगातार कुछ ही लोगों तक सीमित रखकर हासिल की गई है। तथाकथित आर्थिक सुधारों के उस मानवीय चेहरे पर अमानवीयतापूर्वक तेजाब डालकर‚ जिसकी चर्चा २४ जुलाई‚ १९९१ को देश में भूमंडलीकरण की नीतियों का आगाज करते हुए उसके सबसे बड़े पैरोकार तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने की थी।
गैर–बराबरी के ये आंकड़े हमारे लिए इस लिहाज से ज्यादा चिंतनीय हैं कि ये हमारे दुनिया का सबसे ‘महान’ जनतंत्र होने के दावे की कनपटी पर किसी करारे थप्पड़ से कम नहीं हैं। इसलिए और भी कि जहां कई अन्य छोटे–बड़े देशों ने भूमंडलीकरण के अनर्थों को पहचानना और उनसे निपटने के प्रतिरक्षात्मक उपाय करना शुरू कर दिया है‚ हमारे सत्ताधीश कतई किसी पुनर्विचार को राजी नहीं हैं। उन्हें इस सवाल से कतई कोई उलझन नहीं होती कि अगर इस जनतंत्र के सात दशकों का सबसे बड़ा हासिल यह एक प्रतिशत की अमीरी ही है‚ तो बाकी निन्यानवे प्रतिशत के लिए इसके मायने क्या हैंॽ
बड़े–बड़े परिवर्तनों के दावे करके आई नरेन्द्र मोदी सरकार को भी अपने चार सालों में इस अनर्थ नीति को बदलना गंवारा नहीं है। भले ही यह नीति कम से कम इस अर्थ में तो भारत के संविधान की घोर विरोधी है कि यह किसी भी स्तर पर उसके समता के मूल्य की प्रतिष्ठा नहीं करती और उसके संकल्पों के उलट आर्थिक ही नहीं‚ प्राकृतिक संसाधनों के भी अंधाधुंध संकेंद्रण पर जोर देती है। यह सरकार इस सीधे सवाल का सामना भी नहीं करती कि किसी एक व्यक्ति के अमीर बनाने के लिए कितनी बड़ी जनसंख्या को गरीबी के हवाले करना पड़ता है‚ और क्यों हमें ‘ह्रदयहीन’ पूंजी को ब्रह्म और ‘श्रम के शोषक’ मुनाफे को मोक्ष मानकर ‘सह्रदय’ मनुष्य को संसाधन की तरह संचालित करने वाली अर्थव्यवस्था के लिए अनंतकाल तक अपनी सारी लोकतांत्रिक–सामाजिक नैतिकताओं‚ गुणों और मूल्यों की बलि देते रहना चाहिएॽ
एक ओर इन सवालों के जवाब नहीं आ रहे और दूसरी ओर इन्हें पूछने वाले हकलाने लग गए हैं‚ तो साफ है कि हमारे लोकतंत्र में जनतांत्रिक विचारों की कमी खतरनाक स्तर तक जा पहुंची है। यह कमी ऐसे वक्त में कोढ़ में खाज से कम नहीं है कि गरीबों को और गरीब और अमीरों को और अमीर बनाने वाली आर्थिक नीति के करिश्मे अब किसी एक देश तक सीमित नहीं हैं। वे सारे लाभों को अमीर देशों के लिए सुरक्षित कर उन्हें और अमीर जबकि गरीब देशों को और गरीब बना रही हैं। एक प्रतिशत लोगों की अमीरी की यह उड़ान हमें कितनी महंगी पड़ने वाली है‚ जानना हो तो बताइए कि गरीबों के लिए इस गैरबराबरी से उबरने की कल्पना भी दुष्कर हो जाएगी तो वे क्या करेंगेॽ