गोवा में 40 विधानसभा सीटों के लिए मत डाले जा चुके हैं। अब 10 मार्च को आने वाले परिणामों की प्रतीक्षा है। इस छोटे मगर आकर्षक प्रदेश ने कई नये चुनावी चलन को जन्म दिया है। पहली बार प्रत्याशियों को चुनाव–पूर्व शपथ दिलाई गई। दल–बदल से डरी कांग्रेस ने अपने प्रत्याशियों को मंदिर और चर्च ले जाकर शपथ दिलाई। गौरतलब है कि भाजपा के आधे प्रत्याशी कांग्रेस से आए हैं। तृणमूल कांग्रेस गोवा फॉरवर्ड पार्टी के नेता किरण कंदोलकर और राकांपा होते आए पूर्व कांग्रेस मुख्यमंत्री चर्चिल आलेमाओ के सहारे है। उसके प्रत्याशियों में आधा दर्जन से अधिक तो पूर्व भाजपा विधायक हैं।
हर दल में परिवारवाद की छाया है। स्वास्थ्य मंत्री विश्वजीत राणे और उनकी पत्नी अतनासियो मोंसेरेटतो चुनाव मैदान में हैं। कांग्रेस ने माइकल लोबो और मिसेज लोबो को टिकट दिया है। तृणमूल कांग्रेस किरण कंदोलकर दंपती के सहारे दो पत्ती फूल खिलाने में लगी है। उपमुख्यमंत्री चंद्रकांत काबलेकर की पत्नी निर्दल चुनावी मैदान में हैं। गोवा का चुनाव धनबलियों का चुनाव है। आधे से अधिक उम्मीदवार करोड़पति हैं। मतलब कि गोवा एक और चुनावी चलन के लिए पहचाना जाएगा। चुनाव बेहद तड़क–भड़क वाला है। भ्रष्टाचार के चुनावी मुद्दा होने के बावजूद राजनैतिक दलों के लिए महत्वहीन है। हर दल का प्रभावशाली या शीर्ष नेतृत्व प्रॉपटी‚ कैसीनो और क्लब के धंधे से जुड़ा है। जमीन–हरियाली‚ प्रकृति–संस्कृति की चिंताओं के बावजूद अनैतिक और अनधिकृत कारोबार चालू है। कृषि भूमि‚ सार्वजनिक और सामूहिक भूमि‚ नदी–ताल–पहाड़ सब पर्यटन के नाम पर बिकता रहता है। कुछ खुलेपन और कुछ पर्यटन कारोबारी छूटों ने नशा और वेश्यावृत्ति जैसे सामाजिक दोषों को भी जन्म दिया है। लौह अयस्कों से भरे राज्य में खनन को लेकर कोई नीति नहीं है। करीब ढ़ाई लाख लोगों को प्रत्यक्ष–परोक्ष रोजगार प्रदाता उद्योग वर्षों से बंद है। अवैध खनन की खबरें सुनने में आती रहती हैं।
जनसरोकार के मुद्दे चुनाव से बाहर हैं। दलीय नेता–कार्यकर्ताओं की जरूरत नहीं है। बदलते दौर की राजनीति में बेहतर चुनाव प्रबंधन और तकनीक के आधार पर चुनाव लड़ने–जीतने की सोच सकते हैं। प्रधानमंत्री पद पर नरेन्द्र मोदी के चुनाव के बाद देश ने नया राजनैतिक बदलाव देखा है। देश जाति और जमाती वाली राजनीति से आगे बढ़ चुका है। मतांध–धर्मान्ध राजनीति‚ अल्पसंख्यक तुष्टिकरण और अतिवाद के दिन भी अब लद से गए हैं किंतु गोवा के चुनावों ने इसे भी पलट दिया है। केजरीवाल जाति के नाम पर मुख्यमंत्री प्रत्याशी घोषित कर चुके हैं। गोवा के चर्च शांतिप्रिय समाज में अलगाव के कांटे चुभो रहे हैं। पहली बार ईसाई संस्थाओं ने भाजपा हराओ के लिए पत्र जारी किएहैं। पुर्तगालियों से गोवा को स्वतंत्र हुए ६२ वर्ष और पिछले साल गोवा मुक्ति संग्राम के भी ७५ वर्ष पूरे हुए हैं। ऐसे में संघर्ष और उसके नायकों की गाथा से समाज को अवगत कराने की आवश्यकता है अन्यथा गोवा केवल मौज–मस्ती का गंतव्य बनकर रह जाएगा जबकि गोवा का अतीत भगवान परशुराम से शुरू होता है। बात अगर गोवा के चुनावी गणित की करें तो गोवा कई मामलों में अलग–अलग सा है। गोवा की आधी सीटें दक्षिणी तो आधी के करीब उत्तरी हिस्से में आती हैं। उत्तरी गोवा की १९ सीटें हिंदू बहुल हैं। दक्षिण गोवा की चार तटीय तहसीलों में २१ सीटें आती हैं। ये ईसाई बहुल हैं। ऐसे में किसी भी दल को बहुमत हेतु दोनों क्षेत्र और दोनों समुदाय का मत चाहिए। हां‚ दो दलों वाले चुनाव में कोई तीसरा दल मजबूती से उभरता है‚ तो बात अलग है। किंतु इस बार के चुनाव में ऐसा कुछ होता नहीं दिख रहा है। कुल मिलाकर गोवा का चुनावी मुकाबला भाजपा बनाम कांग्रेस का है।
गोवा में जीत–हार का अंतर अक्सर बेहद कम होता है। औसतन २० हजार मतदाताओं वाले विधानसभा क्षेत्रों में किसी तीसरे पक्ष की उपस्थिति खेल खराब कर सकती है। पिछले चुनाव में गोमांतक पार्टी‚ गोवा फॉरवर्ड पक्ष और गोवा सुरक्षा दल के नाते भाजपा ने ७ सीटें तो १५ सौ से भी कम वोटों से गंवाई थीं। संयोगवश इस बार इन दलों की जगह तृणमूल और आप का जोर है। ऐसे में नई सरकार के गठन का रास्ता काफी कुछ इन दलों के प्रदर्शन पर निर्भर करता है। इनका जोर चला तो भाजपा निश्चित ही सीटों में नंबर एक होगी। वहीं १० वर्ष के सरकार विरोधी रु झानों के बावजूद गोवा के लोगों ने भाजपा को चुना तो निश्चित ही यह मोदी मैजिक होगा। फिलहाल‚ गोवा का रंग–बिरंगा चुनाव जुबानी जंग की चुनावी तपिश से मुक्त हो चुका है। वैसे सतरंगी गोवा मतदाताओं को एक बात के लिए अवश्य बधाई देनी चाहिए। उन्होंने १४ फरवरी वेलेंटाइन सेलिब्रेशन की जगह जम कर मतदान किया। गोवा ने इस चरण के चुनाव में सर्वाधिक लगभग 79% मतदान कर आदर्श प्रस्तुत किया है।