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अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में एक और एक का जोड़ हमेशा दो ही नहीं होता…………….

UB India News by UB India News
June 4, 2022
in अन्तर्राष्ट्रीय, ब्लॉग
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अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में एक और एक का जोड़ हमेशा दो ही नहीं होता…………….

यूक्रेन पर सैन्य आक्रमण की आशंका के बीच रूस और पश्चिमी देशों के बीच चल रहे शीत युद्ध की गर्मी हर गुजरते दिन के साथ बढ़ती जा रही है। बेशक रूस बार–बार यूक्रेन पर किसी औपचारिक हमले की संभावना को नकार रहा है‚ लेकिन यूक्रेन की सीमा पर उसकी सेना की बढ़ती तैनाती कुछ दूसरी ही कहानी कह रही है। अभी तक यह कहा जा रहा था कि रूस ने यूक्रेन से लगती सीमा पर एक लाख सैनिक तैनात किए हुए हैं‚ लेकिन ताजा अनुमान में यह संख्या लगभग दोगुनी होकर १ लाख ९० हजार तक पहुंच गई है। इसमें यूक्रेन के अंदर रूसी समर्थित अलगाववादी‚ रूसी नेशनल गार्ड और क्रीमिया में तैनात रूसी सैनिकों को भी शामिल किया गया है।

खतरा इसलिए बढ़ा हुआ माना जा रहा है क्योंकि इस सेना के लगभग ५० फीसद हिस्से ने अब आक्रमण वाली पोजीशन ले ली है। सैटेलाइट तस्वीरों में बेलारूस‚ यूक्रेन के हिस्से वाले क्रीमिया क्षेत्र और यूक्रेन की पश्चिमी सीमा के पास बढ़ी हुई सैन्य हलचल दिखी है। तस्वीरों में इन जगहों पर हेलीकॉप्टर और ड्रोन उपकरणों की भारी जमावट दिखी है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन इसे रूस के हमले को अंतिम रूप देने की तैयारी का एक और स्पष्ट संकेत बता रहे हैं। क्या रूस वास्तव में यूक्रेन पर आक्रमण करेगाॽ सवाल युद्ध क्षेत्र से जुड़ा है और अपने–अपने मोर्चे को मजबूत करने के लिए इस पर दोस्त और दुश्मन वाली डिप्लोमेसी का खेल भी खूब चल रहा है। इस हफ्ते भारत न चाहते हुए भी इस खेल का केंद्र बन गया। शांत और रचनात्मक कूटनीति को वक्त की दरकार बताते हुए भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के मंच से दोनों पक्षों को तनाव बढ़ाने वाले किसी भी कदम से बचने की सलाह दी थी। अब अमेरिका और रूस इसके अपने–अपने निहातार्थ निकाल कर भारत को अपने खेमे में दिखाने की कोशिशों में जुटे हैं। रूस ने जहां स्वतंत्र और संतुलित रुख दिखाने के लिए भारत की प्रशंसा की है‚ तो अमेरिका भी उम्मीद जता रहा है कि आक्रमण की स्थिति में भारत उसी का साथ देगा। इसके लिए अमेरिका क्वॉड के विदेश मंत्रियों की मेलबर्न बैठक का हवाला देते हुए भारत को याद दिला रहा है कि जिस तरह नियम आधारित व्यवस्था यूरोप या दुनिया में कहीं और लागू होती है‚ वैसे ही वह हिंद–प्रशांत क्षेत्र में भी प्रभावी है और भारत भी इस व्यवस्था के लिए प्रतिबद्ध है कि ताकत के बल पर सीमाओं का पुननर्धारण नहीं हो सकता।

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कूटनीति की यह गूढ़ जटिलताएं हुक्मरानों के ही बस की बात है‚ लेकिन जो बड़ा सवाल उनके जेहन में उमड़ घुमड़ रहा होगा वो एक औसत भारतीय की सीधी–सरल जुबान वाली इस चिंता से अलग नहीं होगा कि अगर युद्ध हुआ तो भारत कहां खड़ा होगाॽ क्या भारत पुराने मित्र रूस का साथ देगा या नये दोस्त अमेरिका का साथ देगाॽ प्याज की परतों की तरह इस सवाल का जवाब भी बहुस्तरीय है। आजादी के समय से लेकर शीत युद्ध तक और फिर उसके बाद सोवियत संघ के विघटन तक भारत और रूस के बीच प्रगाढ़ दोस्ती रही। आर्थिक व्यापार और हथियारों की खरीद–फरोख्त ने इस दोस्ती को खाद–पानी देने का काम किया‚ लेकिन सीएमआईआई यानी सेंटर फॉर मॉनिटिरंग इंडियन इकोनॉमी के आंकड़े बताते हैं कि अब इस क्षेत्र में कहानी बदल गई है। शीत युद्ध के दौर में भारतीय निर्यात में १० फीसद तक की हिस्सेदारी रखने वाले रूस को अब भारत केवल एक फीसद तक का निर्यात करता है। यही हाल आयात का है जहां आंकड़ा १.४ फीसद है। नतीजा यह हुआ है कि दोनों देशों का आपसी कारोबार अब ९.३ अरब डॉलर तक सिमट गया है। हालांकि दोनों देशों ने इसे २०२५ तक ३० अरब डॉलर तक बढ़ाने और द्विपक्षीय निवेश को ५० अरब डॉलर तक ले जाने के लक्ष्य भी तय किए हैं। तब भी यह अमेरिका के साथ हमारे १४६ बिलियन डॉलर और यूरोपीय संघ से ७१ बिलियन डॉलर के आपसी कारोबार की तुलना में काफी कम रहेगा‚ लेकिन इसका दूसरा और ज्यादा महत्वपूर्ण पक्ष ये भी है कि कुल आपसी कारोबार में हथियारों की खरीद के लिहाज से रूस की अहमियत कहीं ज्यादा है। इस बात को तो अमेरिका भी मानता है कि हथियारों की सटीकता के मामले में भले ही वो इक्कीस हो‚ लेकिन विश्वसनीयता और मारक क्षमता के मामले में रूस उससे आगे है। रूस के ३एम२२ जिरकोन जैसे हाइपरसोनिक हथियार इतनी तेज और कम उड़ान भरते हैं कि उसके सामने अमेरिका की पारंपरिक मिसाइल–विरोधी रक्षा प्रणाली भी दम तोड़ देती है। स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट की मार्च‚ २०२१ की रिपोर्ट बताती है कि २०१६–२०२० की अवधि में भारत रूसी हथियारों का सबसे बड़ा खरीदार रहा। इस दौरान कुल रूसी रक्षा निर्यात का २३ फीसद हिस्सा भारत आया। इसकी तुलना में अमेरिका से हमारा रक्षा व्यापार २० अरब डॉलर का रहा‚ जो भले ही कीमत के लिहाज से रूस से ज्यादा हो‚ लेकिन आपसी कारोबार का तुलनात्मक रूप से ये छोटा हिस्सा है। २०१९–२० में भारत ने अत्याधुनिक तकनीक वाले रूसी हथियारों के नए ऑर्डर दिए हैं‚ जिससे अगले पांच वर्षों में रूसी हथियारों का भारत को निर्यात और बढ़ जाएगा। देश की पूर्वी और उत्तरी सीमाओं की पहरेदारी में इस नजरिए से रूस का महत्वपूर्ण योगदान है। युद्ध होने की स्थिति में न केवल इन हथियारों के निर्यात पर तलवार लटक सकती है‚ बल्कि ऐसी खरीद करने पर अमेरिकी प्रतिबंध का खतरा भी बढ़ सकता है।

युद्ध से जुड़ा तीसरा पक्ष चीन से संबंधित अंतरराष्ट्रीय मसले का है। इसी विषय पर अपने पिछले लेख में मैंने बताया था कि किस तरह रूस को केन्द्र में रखने पर चीन और अमेरिका को लेकर हमारे समीकरण का योग हर स्थिति में शून्य ही है। अमेरिका की ताकत बढ़ती है‚ तो चीन पीछे हटता है। इसी तरह जो कुछ अमेरिका को कमजोर करता है‚ वो चीन को फायदा पहुंचाता है। रूस चाहेगा कि अमेरिका कमजोर हो। इससे चीन मजबूत होगा और रूस लाख कहे कि उसका इरादा भारत को कमजोर करना नहीं है‚ लेकिन आखिरकार नुकसान तो भारत का ही होना है। मौजूदा स्थिति में भारत अगर अमेरिका और अपने यूरोपीय सहयोगियों के साथ खड़ा होता है‚ तो यह रूस को नाखुश करेगा। भारत अगर रूस के साथ जाता है‚ तो यह एक ही समय में चीन को मजबूत और अमेरिकी गठबंधन को कमजोर करेगा। संतुलन साधने और दोनों पक्षों को खुश रखने के फेर में इसे दोनों तरह से नाखुशी का खतरा मोल लेने के लिए तैयार रहना होगा।

तो यह स्थिति कैसे टाली जा सकती हैॽ इसका एक तरीका तो यही है कि न केवल युद्ध टल जाए‚ बल्कि इससे जुड़ा तनाव भी खत्म हो जाए। लेकिन अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम अपनी धुरी पर ऐसे पूरी तरह कभी नहीं पलटते है। तो दूसरा रास्ता तनाव को धीरे–धीरे कम कर दोनों पक्षों को युद्ध के मैदान के बजाय बातचीत की टेबल पर लाने का हो सकता है। फिलहाल यूरोपीय संघ का प्रमुख होने के नाते फ़्रांस इस जिम्मेदारी को निभा रहा है‚ लेकिन उसकी पहल ज्यादा काम करती नहीं दिख रही है। क्या रूस और अमेरिका के लिए समान महत्व रखने की भारत की स्थिति और खासकर भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वैश्विक छवि इसमें संकटमोचक का काम कर सकती हैॽ प्रधानमंत्री मोदी के सत्ता में आने के बाद से अमेरिका से हमारे संबंधों का एक नया युग शुरू हुआ है। चीन और रूस के संदर्भ में अमेरिका गाहे–बगाहे रिश्तों की इस गर्मी का बखान भी करता रहता है। पुतिन भी साल २०१४ के बाद से अब तक प्रधानमंत्री मोदी से १९ मुलाकातें कर चुके हैं‚ जो अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में दोनों तरफ से एक–दूसरे के महत्व की स्वीकारोक्ति है। वैसे हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में एक और एक का जोड़ हमेशा दो ही नहीं होता है‚ लेकिन एक और एक का जोड़ सबको एक साथ जोड़े रखने में कामयाब हो जाए‚ तो हर्ज भी क्या हैॽ

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