कहा जाता है कि समझदार व्यापारी राजनीति से सम्मानजनक दूरी बनाकर चलता है। क्योंकि राजनीति से नजदीकी के फायदे कम नुकसान ज्यादा होते हैं। अंतराष्ट्रीय राजनीति यानी कूटनय तो और ज्यादा संवेदनशील मसला है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां किसी भी विवाद में अतिरिक्त सतर्कता बरतती हैं। इसके बावजूद कभी–कभार उनकी नामसमझी मुश्किलें पैदा कर देती हैं।
कश्मीर जैसे संवेदनशील मसले पर उनकी नासमझी ने भारत में उन्हें चौतरफा आलोचना का समाना करना पड़ा रहा है। बिजनेस का जो नुकसान हुआ सो अलग। दक्षिण कोरिया की बहुराष्ट्रीय कंपनी हुंडई का मामला तो कूटनीति स्तर तक जा पहुंचा है। भारत ने दक्षिण कोरियाई राजदूत को बुलाकर बाकायदा आपत्ति दर्ज कराई। पता नहीं बहुराष्ट्रीय कंपनिया ये कैसे भूल जाती हैं कि वे उन देशों की राष्ट्रीय भावनाओं के साथ तालमेल बिठाकर ही आगे बढ़ सकती हैं। ताजा विवाद जिसमें भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में काम कर रहीं कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सोशल मीडिया हैंडल से कश्मीर की आजादी संबंधी पोस्ट किए गए‚ जो अस्वीकार्य है। कश्मीर भारत की चेतना से जुड़ा हुआ और इस प्रकार एकपक्षीय सोचा उस किसी हमले से कम नहीं। कंपनियां भले जो सफाई दें‚ जितना नुकसान होना था वो हो गया। कश्मीर पर भारत के उलट रुख का समर्थन सीधे पाकिस्तान के पक्ष से जोड़ा गया। वैसे यह मामला जितना सीधा दिख रहा है उतना है नहीं। आशंका है कि इसके पीछे कश्मीर मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण करने में लगे समूहों का हाथ हो। खैर‚ इस संदर्भ में पाकिस्तान की लेखिका–जो अपनी ‘पाकिस्तान डायरी’ के लिए भारत में मशहूर हैं–की बात याद आ गई। बात १९९९ के करगिल युद्ध की है‚ जब दो बड़ी कोल्ड ड्रिंक कंपनियां भारत और पाकिस्तान दोनों की राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रयोजित कर रही थीं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों का यही मूल चरित्र होता है।
ताजा मामले में वे थोड़ी भटक गइ। ऐसे में घटनाक्रम पर एक टिप्पणी गौर करने वाली है–न्यूज चैनलों के रिपोर्टरों की बीमारी कंपनियों को भी लग गई। जैसे कभी–कभी स्पोर्ट्स बीट का रिपोर्टर राजनीति में और राजनीतिक बीट का रिपोर्टर स्पोर्ट्स में टांग घुसाता है वैसे ही कार‚ पिज्जा‚ चिकन वगैरह बेचने वाली कंपनियां कूटनीतिक मामलों में हस्तक्षेप कर रही हैं। जाहिर है इस प्रकार की हरकतों से फायदा तो नहीं होने वाला।