कहने को बहुत कुछ हो तो समझ में नहीं आता कि क्या कहा जाए और कहां से कहा जाएॽ लता मंगेशकर के न रहने पर कुछ लिखते हुए ऐसा लगता ही नहीं कि यह केवल किसी गायिका पर कुछ लिखा जाना है। वास्तव में अपनी इतनी लंबी संगीत यात्रा में लता मंगेशकर हम सबके लिए एक जरूरत बन चुकी हैं‚ ऐसी जरूरत जिसके बिना जीवन की कल्पना अधूरी लगती है। वे हमारे जीवन में‚ हम सब भारतीयों के जीवन में‚ और न सिर्फ भारतीयों‚ बल्कि दूसरे देशों में‚ सुदूर देशों में जहां–कहीं भी भारतीय गीतों को सुनने वाले हैं‚ उसी तरह शामिल और जरूरी हैं जिस प्रकार हमारी तमाम दूसरी जरूरतें। उनके गीत हमारे भाव हैं‚ और भाषा भी।
हमारे सुख–दुख में‚ प्रसन्नता–उदासी में अक्सर हमारे पास शब्द नहीं होते‚ सिर्फ मन के भीतर उनका गीत बज रहा होता है। वे बजते हैं हमारी अभिव्यक्ति की तरह और किसी अभिभावक की तरह‚ किसी प्रिय की तरह‚ किसी मित्र की तरह–हमें सहारा देते हुए‚ हमारी पीड़ा को कम करते हुए‚ हममें नये बल और साहस भरते हुए भी। संगीत ने बहुत सारे गायक–गायिकाओं को देखा है‚ तो वह क्या है जो लता मंगेशकर को ‘न भूतो न भविष्यति’ बनाता है‚ वह क्या है जिसके कारण मराठी के प्रसिद्ध लेखक पु. ल. देशपांडे को कहना पड़ता है‚ ‘संसार में सूर्य है‚ चंद्रमा है और लता मंगेशकर का सुर है।’ कहने का आशय है कि ऐसा दूसरा नहीं हो सकता। सहज जवाब हो सकता है कि उनका कंठ मधुर है‚ लेकिन ऐसी मधुरता‚ ऐसा कंठ जो हर किसी को पसंद आ जाए‚ अप्रतिम ही है। न सिर्फ अभिनेत्रियों की कई पीढ़ियों के लिए उन्होंने गीत गाए हैं‚ बल्कि उनके श्रोताओं और प्रशंसकों में भी कई पीढ़ियां हैं।
आखिर‚ हर गायक गायिका का एक प्रशंसक वर्ग होता है। बहुत सारे लोगों को उसके गाने पसंद आते हैं और बहुत सारे लोगों को उतने नहीं पसंद आते हैं‚ लेकिन लता मंगेशकर अपवाद हैं। कई पीढ़ियों से उनको सुनते हुए भी शायद ही कोई ऐसा हो जो कहे कि उसे लता मंगेशकर के गीत पसंद नहीं आए। फिर इसे सुनने वाला शास्त्रीय संगीत का कोई कलाकार हो‚ जानकार हो या कोई आम श्रोता। उनके गीत हर किसी के दिल को छूते रहे हैं‚ उसे प्रभावित करते रहे हैं। उनके बीते दौर के लिए अभिनेत्रियों के लिए फिल्माए गए गीत हों या फिल्मों के लिए गाना बंद करते समय के दौर की अभिनेत्रियों के लिए‚ वह चाहे लोरी हो या गजल‚ प्रेम का गीत हो या करुणा का–हर गीत ऐसा लगता है जैसे वह उन्हीं के लिए बना हो।
उन्हें शास्त्रीय संगीत की गहरी समझ और जानकारी थी‚ उन्होंने काफी कम उम्र से इसकी तालीम ली थी‚ लेकिन उन्होंने कभी अपने गीतों को अपनी इस गहरी जानकारी से आक्रांत नहीं होने दिया। इसके उलट उन्होंने कठिन–से–कठिन रागों को इस अंदाज में प्रस्तुत किया जैसे वह कितनी सामान्य बात हो। ऐसे गीतों में जानकारों ने शास्त्रीयता का आनंद लिया तो सामान्य दर्शकों तक यह शास्त्रीयता लोकप्रिय मुहावरे में ढलकर पहुंची। उनके गायन में एक और महत्वपूर्ण बात उनकी कोमलता और मधुरता भी रही‚ जो हर किसी को बांध लेती थी। बताते हैं कि कभी इसी कोमलता के कारण संगीतकारों ने उन्हें मना कर दिया था‚ मगर बाद में हर किसी को इसी कोमलता की आवश्यकता पड़ती गई।
तरह–तरह के गीतों‚ लोकप्रियता के दबाव के बावजूद उन्होंने गायन में कभी समझौता नहीं किया‚ तभी बड़े गुलाम अली खान जैसे विख्यात शास्त्रीय गायक को कहना पड़ा कि कमबख्त कभी बेसुरी नहीं होती। शिव–हरि नाम से प्रसिद्ध संतूर वादक पंडित शिवकुमार शर्मा के साथ लता मंगेशकर के कई लोकप्रिय गीतों के संगीतकार रहे प्रसिद्ध बांसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया भी कहते हैं कि जब वे हमारे गीतों को गाती थीं तो हमने पाया कि हमारी कल्पना से भी बहुत अच्छा गा रही हैं। प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक पंडित कुमार गंधर्व ने काफी पहले लता मंगेशकर पर एक लेख ‘अभिजात कलावती’ लिखा था। पंडित जी इसमें लिखते हैं‚ ‘उसने नई पीढी के संगीत को संस्कारित किया है और सामान्य मनुष्य में संगीत विषयक अभिरु चि पैदा करने में बडा हाथ बंटाया है। संगीत की लोकप्रियता‚ प्रसार और अभिरुचि के विकास का श्रेय लता को ही देना पडेगा। सामान्य श्रोता को अगर आज लता की ध्वनि–मुद्रिका और शास्त्रीय गायकी की ध्वनि–मुद्रिका सुनाई जाए तो वह लता की ध्वनि–मुद्रिका ही पसंद करेगा। गान कौन से राग में गाया गया और ताल कौन–सा था यह शास्त्रीय ब्योरा इस आदमी को सहसा मालूम नहीं रहता। उसे इससे मतलब नहीं कि राग मालकौंस था और ताल त्रिताल। उसे तो चाहिए वह मिठास‚ जो उसे मस्त कर दे‚ जिसका वह अनुभव कर सके। और यह स्वाभाविक ही है। क्योंकि जिस प्रकार मनुष्यता हो तो वह मनुष्य है‚ वैसे ही ‘गान–पन’ हो तो वह संगीत है। और लता का कोई भी गाना लीजिए‚ तो उसमें शत–प्रतिशत यह ‘गान–पन’ मिलेगा। लता की लोकप्रियता का मुख्य मर्म यह ‘गान–पन’ ही है।
लता के गाने की एक और विशेषता है‚ उनके स्वरों की निर्मलता। उसके पहले की पार्श्व गायिका नूरजहां भी अच्छी गायिका थी। इसमें संदेह नहीं तथापि उसके गाने में एक मादक उत्तान दिखता था। लता के स्वरों में कोमलता और मुग्धता है। ऐसा दिखता है कि लता का जीवन की ओर देखने का जो दृष्टिकोण है‚ वही उसके गायन की निर्मलता में झलक रहा है। हां‚ संगीत दिग्दर्शकों ने उसके स्वर की इस निर्मलता का जितना उपयोग कर लेना चाहिए था‚ उतना नहीं किया।
मैं संगीत दिग्दर्शक होता तो लता को बहुत जटिल काम देता‚ ऐसा कहे बिना नहीं रहा जाता। लता के गाने की एक और विशेषता है उनका नादमय उच्चार। उसके गीत के किन्हीं दो शब्दों का अंतर‚ स्वरों की आस द्वारा बडी सुंदर रीति से भरा रहता है और ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों शब्द विलीन होते–होते एक दूसरे में मिल जाते हैं। यह बात पैदा करना कठिन है‚ परंतु लता के साथ यह अत्यंत सहज और स्वाभाविक हो बैठी है।’ लता ने संगीत में जिन उचाइयों छुआ‚ उसने उन्हें देवी का रूप दे दिया‚ लेकिन आम इंसान की तरह उनका लंबा संगीतमय जीवन विवादों से परे नहीं रहा। कभी उन पर दूसरे पार्श्वगायिकाओं को आगे न बढ़ने देने का आरोप लगा‚ कभी बहनों में मतभेद की बातें कहीं गइ। पार्श्व गायक मोहम्मद रफी से एक मुद्दे पर संबंधों में खटास आई‚ कई संगीतकारों के साथ न गाने का निर्णय भी किया लेकिन लता जी का कद उनके गायन से जिस प्रकार बड़ा होता गया‚ ये विवाद–आरोप उसके सामने बहुत छोटे‚ बौने लगने लगे।