विधता और भेदभाव में एक बुनियादी फर्क है। जहां एक ओर विविधता का संबंध रहन–सहन‚ क्षेत्रीय परिस्थितियों एवं संस्कृति व परंपराओं से है‚ वहीं दूसरी ओर भेदभाव का संबंध वर्चस्ववाद से है। वही वर्चस्ववाद जो तय करता है कि शासन कौन करेगा। जाहिर तौर पर इसमें संसाधनों का उपभोग भी शामिल है। अब यदि भारत के संदर्भ में हम व्याख्या करें तो पाते हैं कि यह भेदभाव एक आयामी नहीं है। भेदभाव के लिए तमाम तरह के विभेदक उपयोग में लाए जाते हैं। मसलन‚ लिंग‚ धर्म‚ रंग‚ धन और जाति। इसमें जाति–भेद का संबंध सीधे तौर पर धर्म से है‚ और यह बहुत मजबूत है। इतना मजबूत कि इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में भी इसे तोड़ने का साहस भारतीय समाज नहीं कर पा रहा है।
बीती २८ नवम्बर‚ २०२१ को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश संजीव खन्ना व बी. आर. गवई ने एक मामले में कहा है कि आजादी के ७५ साल बाद भी जातिगत भेदभाव खत्म नहीं हुआ है‚ और यह सही समय है जब नागरिक समाज जाति के नाम पर किए गए भयानक अपराधों के प्रति ‘कड़ी अस्वीकृति’ के साथ प्रतिक्रिया अभिव्यक्त करे। सुप्रीम कोर्ट में दोनों न्यायाधीश जिस मामले की सुनवाई कर रहे थे‚ उसकी पृष्ठभूमि पुरानी है। हुआ यह था कि उत्तर प्रदेश में सामाजिक जातिगत बंधनों की अवहेलना के आरोप में एक दलित परिवार पर कहर ढाया गया था। दर्जनों सामंती लोगों ने परिवार के ऊपर हमला बोल कर करीब १२ घंटे तक एक ही परिवार के दो पुरु षों व एक महिला को पीट–पीटकर मार डाला था। इस मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने २३ अभियुक्तों को दोषी करार दिया था। सुप्रीम कोर्ट में इलाहाबाद हाई कोर्ट के इसी फैसले को चुनौती दी गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए यह महत्वपूर्ण टिप्पणी की। इस मामले में न्यायाधीशों ने गवाहों के मुकरने को लेकर भी अपनी राय रखी और कहा कि गवाहों के मुकरने से सत्य नहीं बदल जाता। गवाहों की सुरक्षा राज्य की जिम्मेदारी है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशद्वय की टिप्पणी के पहले अंश पर विचार करते हैं‚ जिसमें उन्होंने कहा है कि आजादी के ७५ साल बाद भी जातिगत भेदभाव खत्म नहीं हुआ है‚ और यह सही समय है जब नागरिक समाज जाति के नाम पर किए गए भयानक अपराधों के प्रति ‘कड़ी अस्वीकृति’ के साथ प्रतिक्रिया अभिव्यक्त करे। सवाल यही हैं कि जातिवाद क्या हैॽ जाति व्यवस्था क्या हैॽ इनके होने का मतलब क्या हैॽ
जाति व्यवस्था की पहले बात करें तो निस्संदेह इसकी जड़ें वर्चस्ववाद से जुड़ी हैं‚ जिन्हें भारतीय संदर्भ में यथास्थितिवाद भी कहा जाता है। एक तरह की शासनिक व आर्थिक प्रणाली‚ जिसके जरिए संसाधनों पर कुछ खास तबकों के लोगों के अधिकाधिक अधिकार और बहुसंख्यकों की न्यूनतम हिस्सेदारी को बनाए रखा जाता है। इसका किसी एक धर्म से लेना–देना नहीं है। अलग धर्म यानी इस्लाम मानने वाले भी जाति व्यवस्था को मानते हैं। सिख धर्म में भी अलग–अलग सामाजिक स्तर हैं। इसमें पंथों के आधार पर सामाजिक विभाजन है। दूसरी ओर‚ जाति व्यवस्था को बनाए रखने की प्रवृत्ति अथवा किया जाने वाला सामाजिक उपक्रम ही जातिवाद है। अब सवाल यह है कि जातिवाद करते कौन हैंॽ क्या इसे खत्म करने की कोई कोशिश हुई हैॽ यदि हुई है तो वह कोशिश कितनी ईमानदार रही हैॽ
दरअसल‚ इस संदर्भ में कबीर और डॉ. बीआर अंबेडकर का नाम विशेष तौर पर उद्धृत किया जाना चाहिए। एक ने मध्यकाल में हिंदू और इस्लामिक जातिवाद पर करारा प्रहार किया। लेकिन कबीर का प्रभाव क्षेत्र तब बहुत सीमित था। उनका प्रभाव उनके अपने समय में उत्तर भारत के एक छोटे से हिस्से में था। हालांकि बाद के वर्षों में कबीर अधिक प्रभावी हुए। यहां तक कि सिख धर्म के सबसे पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में कबीर की बानी को शामिल किया गया। लेकिन ध्यान से देखें तो कबीर के बाद यदि जातिवाद के खिलाफ एक हद तक कोशिशें हुई तो वह डॉ. अंबेडकर रहे। उन्होंने ‘जाति का विनाश’ नामक पुस्तिका में इसका उल्लेख किया है कि जाति क्या है‚ और यह किस तरह से भारतीय समाज को खोखला बना रही है। वे ब्राह्मणवाद के खात्मे को जाति के विनाश का उपाय मानते हैं।
लेकिन यह अतिश्योक्ति नहीं कि डॉ. अंबेडकर की कोशिशों की एक सीमा थी। इसकी वजह यह भी रही कि उनके सामने छुआछूत से प्रभावित समाज था और दूसरी तरफ वे थे‚ जिनके दिमाग जातिवादी जहर से लबालब भरे थे। ऐसे भी जाति के विनाश का जो तरीका डॉ. अंबेडकर ने बताया है‚ उसके लिए किसी भी व्यक्ति को आदर्श के उच्चतम स्तर को प्राप्त करना आवश्यक है। सामान्य आदमी‚ जो धर्म और जाति की बेडि़यों में पूरी तरह जकड़ा हुआ है‚ जाति के विनाश के बारे में कैसे सोच सकता है। यह तो तभी मुमकिन हो सकता था जब डॉ. अंबेडकर के बाद किसी ने जाति के विनाश को लेकर व्यापक आंदोलन चलाया होता। हालांकि बाद के दिनों में डॉ. राम मनोहर लोहिया भी जातिवाद पर कुछ प्रहार करते नजर आते हैं। लेकिन उनका जोर जातिवाद के खात्मे पर नहीं था। वे वंचित समुदाय के एक बड़े तबके के लिए कोटा चाहते थे। उनका तो नारा ही था–पिछड़ा पावे सौ में साठ। इसका एक परिणाम यह जरूर हुआ कि आज देश की शासन व्यवस्था में उस वर्ग की हिस्सेदारी है‚ जिसकी बात डॉ. लोहिया करते थे। हालत यह है कि बिहार‚ मध्य प्रदेश‚ छत्तीसगढ़‚ तमिलनाडु आदि राज्यों में पिछड़े वर्ग से आने वाले लोगों की हुकूमतें हैं। यहां तक कि देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी खुद को इसी वर्ग का बताते हैं। लेकिन इन सबका समाज में क्या असर हुआ है‚ इसका आकलन करने की आवश्यकता है। दलितों के दृष्टिकोण से विचार करें तो दलित नेताओं ने दलितों को और अधिक दलित और ब्राह्मणों के दृष्टिकोण से देखें तो ब्राह्मण नेताओं ने उन्हें अधिक ब्राह्मण बनाया है।
डॉ. अंबेडकर और डॉ. लोहिया के बाद कांशीराम का नाम अवश्य लिया जाना चाहिए। लेकिन उन्होंने भी वंचित समुदायों को एकजुट करने के लिए जातिगत अवधारणाओं का सहारा लिया तथा डीएस–४ का गठन किया। हालांकि यह जात से जमात की ओर बढ़ने की राजनीति थी। लेकिन इसका असर सकारात्मक नहीं रहा और कांशीराम को बहुजन समाज पार्टी का गठन करना पड़ा‚ जो आज केवल दलितों की पार्टी बनकर रह गई है। ऐसे में जबकि भारत में जातिवाद को तोड़ने को लेकर कोई आंदोलन ही नहीं हुआ है‚ और न ही शासकों की तरफ से इसकी कोई ठोस पहल की गई है‚ तो जातिवाद समाप्त कैसे होगाॽ वैसे भी जाति व्यवस्था का सीधा संबंध संसाधनों पर अधिकार से जुड़ा है। भारत में यह अधिकार ८५ फीसदी जनता के पास एकदम न्यून है। ऐसे में वर्चस्व को बनाए रखने और वर्चस्व को तोड़ने के लिए संघर्ष तो चलेंगे ही। अब यदि कोई इसे समाप्त करना चाहे तो निश्चित तौर पर उसे सांस्कृतिक‚ सामाजिक और आर्थिक‚ तीनों स्तरों पर यह सब करना होगा। ऐसा नहीं होगा कि मुट्ठी भर लोगों के पास ९० फीसदी संसाधन होगा और समाज के सारे लोग एक समान हो जाएंगे।