चिता‚ सादगी‚ सहनशीलता‚ त्याग और विद्वता को यदि एक ही जगह देखना हो तो निÌववाद रूप से देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद के व्यक्तित्व में ही ये समेकित रूप में मिलेगा। स्वतंत्रता संग्राम में संघर्ष से लेकर स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति के रूप में अमिट छाप छोड़ने वाले राजेन्द्र बाबू के जीवन का हर क्षण अविस्मरणीय और अनुकरणीय है। छात्र जीवन में उनकी मेधा की चर्चा हर जुबान पर है तो स्वतंत्रता संग्राम में उनके संघर्ष की गाथा भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षर में अंकित है।
गांधीजी के मुख्य शिष्यों में से एक राजेन्द्र बाबू ने भारत को स्वतंत्र कराने के लिए प्राण तक न्योछावर करने की ठान ली थी। नमक सत्याग्रह व भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान इन्हें जेल की यातनाएं सहनी पड़ी। सादगी‚ सेवा‚ त्याग‚ देशभक्ति और स्वतंत्रता आंदोलन में अपने आपको पूरी तरह से समÌपत कर देने वाले राजेंद्र बाबू अत्यंत सरल और गंभीर प्रकृति के व्यक्तित्व के धनी थे और सभी वर्ग के लोगों से सामान्य व्यवहार रखने के साथ ही स्वयं भी एक सामान्य नागरिक की तरह ही रहना पसंद किया। ॥ ३ दिसम्बर‚ १८८४ को बिहार के एक छोटे से गांव जीरादेई में जन्म लेने वाले डॉ. प्रसाद के पिता का नाम महादेव सहाय था व माता का नाम कमलेश्वरी देवी था। इनके पिता संस्कृत व फारसी भाषा के बहुत बड़े ज्ञानी थे‚ जबकि माता धाÌमक महिला थी‚ वे राजेन्द्र प्रसाद को रामायण की कहानियां भी सुनाया करती थीं। डॉ. प्रसाद का विवाह १२ साल की उम्र में हुआ था उनकी पत्नी का नाम राजवंशी देवी था। पांच साल की आयु में ही उनके माता–पिता उनको एक मौलवी के यहां भेजने लगे थे‚ ताकि वे फारसी‚ उर्दू‚ हिंदी का ज्ञान प्राप्त कर सकें। डॉ. राजेंद्र प्रसाद की प्रारंभिक शिक्षा उन्हीं के गांव जीरादेई में हुई।
पढ़ाई की तरफ इनका रु झान बचपन से ही था। अपने भाई महेंद्र प्रताप के साथ वे पटना के टीके घोष अकेडमी में जाने लगे। इसके बाद यूनिवÌसटी ऑफ कलकत्ता में प्रवेश के लिए परीक्षा दी‚ जिसमें वे बहुत अच्छे नंबर से पास हुए‚ जिसके बाद उन्हें हर महीने ३० रु पये की छात्रवृत्ति मिलने लगी। उनके गांव से पहली बार किसी युवक ने कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने में सफलता प्राप्त की थी। १९०२ में उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया‚ जहां से इन्होंने स्नातक किया। १९०७ में यूनिवÌसटी ऑफ कलकत्ता से इकोनॉमिक्स में एमए किया। १९१५ में कानून में मास्टर की डिग्री पूरी की‚ जिसके लिए उन्हें गोल्ड मेडल से सम्मानित किया गया। इसके बाद उन्होंने कानून में डॉक्टरेट की उपाधि भी प्राप्त की। इसके बाद पटना आकर वकालत करने लगे‚ जिससे वे काफी यशस्वी बने और उनकी ख्याति हरओर फैल गई। उस समय बिहार में अंग्रेज सरकार के पास नील की खेती थी‚ लेकिन सरकार श्रमिकों को उचित पारिश्रमिक नहीं देती थी और उनका शोषण कर रही थी। १९१७ में गांधीजी ने बिहार आ कर इस समस्या को दूर करने की पहल की। उसी दौरान डॉ. प्रसाद‚ महात्मा गांधीजी से मिले और उनकी विचारधारा से वे बहुत प्रभावित हुए। १९१९ में जब पूरे भारत में सविनय आन्दोलन की लहर थी तो गांधीजी ने सभी स्कूल‚ सरकारी कार्यालयों का बहिष्कार करने की अपील की। बाद डॉ. प्रसाद ने अंपनी नौकरी छोड़ दी।
चम्पारण आंदोलन के दौरान राजेन्द्र प्रसाद गांधी जी के सबसे विश्वसनीय और निकटतम साथी बन गए थे। गांधी जी के प्रभाव में आने के बाद उन्होंने अपने पुराने और रूढिÃवादी विचारधारा का त्याग कर दिया और एक नई ऊर्जा के साथ स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया। १९३१ में कांग्रेस ने स्वतंत्रता आन्दोलन तेज कर दिया था. इस दौरान डॉ. प्रसाद को कई बार जेल जाना पड़ा। १९३४ में उनको बम्बई कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया था। वे एक से अधिक बार अध्यक्ष बनाये गए। १९३४ में ही बिहार में भीषण भूकंप आने से भरी तबाही मची थी तो राजेन्द्र बाबू ने उस समय सर्वाधिक प्रभावित दरभंगा समेत अन्य हिस्सों में स्वयं जाकर पीडि़तों की सेवा और सहायता की। फिर उन्होंने गांधीजी द्वारा चलाए गए भारत छोड़ो आन्दोलन में बढ–चढकर भाग लिया‚ जिस दौरान वे गिरिफ्तार हुए और नजर बंद रखा गया। राजेन्द्र बाबू की प्रतिभा और क्षमता से सभी लोग काफी प्रभावित थे। १५ अगस्त १९४७ को भारत को स्वतंत्रता मिली प्राप्त हुई। उससे कुछ समय पहले संविधान सभा का गठन कर लिया गया था। संविधान निर्माण में डॉ. भीमराव आंबेडकर व डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने मुख्य भूमिका निभाई थी। भारतीय संविधान समिति के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद चुने गए।
संविधान पर हस्ताक्षर करके डॉ. प्रसाद ने ही इसे मान्यता दी। आजादी के बाद बनी पहली सरकार में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार में कैबिनेट मंत्री के तौर पर खाद्य व कृषि विभाग की जिम्मेदारी दी गई। इसके साथ ही इन्हें भारत के संविधान सभा का अध्यक्ष भी बनाया गया। २६ जनवरी १९५० को भारत को डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जैसे विराट व्यक्तित्व वाले प्रथम राष्ट्रपति मिला। वे राष्ट्रपति बनने के बाद निष्पक्ष व स्वतंत्र रूप से निर्णय लेना चाहते थे‚ इसलिए उन्होंने कांग्रेस पार्टी से सन्यास भी ले लिया था। राजेन्द्र बाबू भारत में शिक्षा के विकास पर अधिक जोर देते थे। इसे लेकर उन्होंने नेहरू सरकार को कई बार अपनी सलाह भी दी। १९५७ में राष्ट्रपति चुनाव हुए‚ जिसमें दोबारा उन्हें राष्ट्रपति बनाया गया। यह अब तक का पहला और अंतिम अवसर था जब कोई व्यक्ति दो बार लगातार राष्ट्रपति बना था। १९६२ तक राजेन्द्र बाबू देश के सर्वोच्च पद पर विराजमान रहे। राजेन्द्र बाबू समग्र आजादी के तहत सरकार में हिंदी भाषा के अधिकाधिक प्रयोग के पक्षधर थे।
१९६२ में ही अपने पद को त्याग कर वे पटना चले गए और बिहार विद्यापीठ में रहकर‚ जन सेवा कर जीवन व्यतीत करने लगे। १९६२ में उन्हें राजनीतिक और सामाजिक योगदान के लिए उन्हें भारत के सर्वश्रेष्ठ नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया। राजेन्द्र बाबू के साथ ही यह सम्मान भी सम्मानित हुआ। २८ फरवरी १९६३ को भारतमाता ने एक विद्वान‚ प्रतिभाशाली‚ oढ़निश्चयी और उदार oष्टिकोण वाले अपने महान सपूत डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को खो दिया। राजेन्द्र बाबू दैहिक रूप से आज हमारे बीच नहीं है‚ लेकिन उनका विराट व्यक्तित्व‚ व्यवहार‚ उनके विचार‚ उनके कार्य‚ उनके जीवन से जुड़ी तमाम बातें युगों तक गुंजायमान रहेंगी। उनका भारतीय राजनीतिक इतिहास में एक महान और विनम्र राष्ट्रपति की छवि के रूप में वे सदैव स्मरणीय रहेंगे. जयंती पर ऐसे महामानव को विनम्र श्रद्धांजलि।