कार्तिक मास की अमावस्या को दीवाली मनाने के तुरंत बाद छठ पर्व मनाया जाता है। छठ षष्टी का अपभ्रंश है। इस पर्व को वर्ष में दो बार मनाया जाता है। पहली बार चैत्र में और दूसरी बार कार्तिक में। चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाए जाने वाले छठ पर्व को चैती छठ व कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाए जाने वाले पर्व को कार्तिक छठ कहा जाता है। पारिवारिक सुख–स्मृद्धि तथा मनोवांछित फल पाने के लिए यह पर्व मनाया जाता है। छठ पर्व के दौरान‚ जैसे‚ प्रसाद बनाते समय‚ खरना के समय‚ अर्घ्य देने के लिए जाते हुए‚ अर्घ्य दान के समय और घाट से घर लौटते समय लोक गीत गाए जाने की परंपरा है। इस साल यानी वर्ष २०२१ में छठ का पहला दिन नहाय–खाय आठ नवम्बर (सोमवार) को है। खरना नौ नवम्बर (मंगलवार) को‚ अस्ताचलगामी (डूबते) सूर्य को अर्घ्य दस नवम्बर (बुधवार) को और उदीयमान (उगते) सूर्य को अर्घ्य ११ नवम्बर (गुरु वार) को है। इस महापर्व का चौथा दिन सबसे खास माना जाता है‚ और इसी दिन इस महाव्रत का समापन होता है। यह पर्व चार दिनों तक धूमधाम से मनाया जाता है। भैयादूज के तीसरे दिन से यह पर्व शुरू हो जाता है।
इस पर्व में सबसे पहले घर की सफाई कर उसे पवित्र बनाया जाता है। तदुपरांत‚ छठव्रती स्नान कर पवित्र तरीके से बना शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत की शुरु आत करते हैं। घर के सभी सदस्य व्रती के भोजनोपरांत ही भोजन ग्रहण करते हैं। भोजन के रूप में कद्दू–दाल (दाल–चने की बनती है) और चावल ग्रहण किया जाता है। दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी को व्रतधारी दिन भर का उपवास रखने के बाद शाम को भोजन करते हैं। इसे ‘खरना’ कहा जाता है। खरना का प्रसाद ग्रहण करने के लिए मित्रों‚ पड़ोसियों और रिश्तेदारों को आमंत्रण भेजा जाता है। प्रसाद के रूप में गन्ने के रस और दूध में बने हुए चावल की खीर‚ चावल का पिट्ठा और रोटी बनाई जाती है। रोटी के दोनों तरफ के भाग को घी से चुपड़ा जाता है। इसमें नमक या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता। इस दौरान पूरे घर की स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है। तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ प्रसाद बनाया जाता है। प्रसाद के रूप में ठेकुआ‚ जिसे कुछ क्षेत्रों में टिकरी भी कहते हैं‚ के अलावा चावल के लड्डू‚ जिसे लड़ुआ भी कहा जाता है‚ बनाते हैं। इसके अलावा‚ चीनी से बने बताशे‚ चीनी के बने सांचे‚ फल‚ गन्ने आदि को भी छठ प्रसाद के रूप में शामिल किया जाता है। शाम को बांस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है‚ और व्रती के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं। सभी छठव्रती तालाब या नदी किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं। अब लोग घर में हौद (पानी रखने की जगह) बनाकर भी सूर्य को अर्घ्य देते हैं। सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है। चौथे दिन कार्तिक शुक्ल की सुबह उदीयमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। व्रती वहीं पुनः इक्ट्ठा होते हैं‚ जहां उन्होंने शाम को अर्घ्य दिया था। पुनः शाम की प्रक्रिया की पुनरावृत्ति की जाती है। अंत में‚ व्रती कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं।
आज के आधुनिक काल में भी छठ व्रत कठिन तपस्या का पर्याय बना हुआ है। पहले अमूमन पुत्र की चाहत रखने वाली और पुत्र की कुशलता के लिए सामान्य तौर पर महिलाएं यह व्रत रखती थीं‚ क्योंकि ऐसी मान्यता थी कि छठ पर्व का व्रत करने वाली महिलाओं को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। हालांकि‚बदलते परिवेश में किसी भी इच्छा की पूर्ति के लिए इस पर्व को किया जाता है। अब तो पुरुष भी किसी इच्छा की पूर्ति के लिए या श्रद्धाभाव से यह व्रत पूरी निष्ठा से करते हैं।
व्रत रखने वाली महिला को परवैतिन भी कहा जाता है। चार दिनों के इस व्रत में व्रती को लगातार उपवास करना होता है। भोजन के साथ ही सुखद शैय्या का भी त्याग किया जाता है। पर्व के लिए बनाए गए कमरे में व्रती फर्श पर कंबल या चादर के सहारे रात बिताते हैं। इस पर्व में व्रती ऐसे कपड़े पहनते हैं‚ जिनमें किसी प्रकार की सिलाई नहीं होती है। महिलाएं साड़ी और पुरु ष धोती पहन कर छठ करते हैं। आम तौर पर छठ पर्व शुरू करने के बाद‚ उसे हर साल तब तक करना होता है‚ जब तक कि अगली पीढ़ी की किसी विवाहित महिला या पुरु ष इसे करने के लिए तैयार न हो जाएं। घर में किसी की मृत्यु हो जाने पर इस पर्व को नहीं किया जाता। छठ पूजा की परंपरा और उसके महत्व का प्रतिपादन करने वाली अनेक पौराणिक और लोक कथाएं प्रचलित हैं। एक मान्यता के अनुसार लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की। सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था। एक अन्य मान्यता के अनुसार छठ पर्व की शुरु आत महाभारत काल में हुई थी। सबसे पहले सूर्य पुत्र कर्ण ने सूर्य देव की पूजा शुरू की। कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे। प्रति दिन घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बने थे। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही पद्धति प्रचलित है।
कुछ कथाओं में पांडवों की पत्नी द्रोपदी द्वारा भी सूर्य की पूजा करने का उल्लेख है। वे अपने परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य की कामना और लंबी उम्र के लिए नियमित सूर्य पूजा करती थीं। एक कथा के अनुसार राजा प्रियवद को कोई संतान नहीं थी‚ तब महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर दी। इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र हुआ‚ परंतु वह मृत पैदा हुआ। प्रियवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे। उसी वक्त भगवान की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई और कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं। राजन तुम मेरा पूजन करो तथा और लोगों को भी प्रेरित करो। राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी।
आज के आधुनिक काल में भी छठ व्रत कठिन तपस्या का पर्याय बना हुआ है। पहले अमूमन पुत्र की चाहत रखने वाली और पुत्र की कुशलता के लिए सामान्य तौर पर महिलाएं यह व्रत रखती थीं‚ क्योंकि ऐसी मान्यता थी कि छठ पर्व का व्रत करने वाली महिलाओं को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। हालांकि‚बदलते परिवेश में किसी भी इच्छा की पूर्ति के लिए इस पर्व को किया जाता है। अब तो पुरुष भी किसी इच्छा की पूर्ति के लिए या श्रद्धाभाव से यह व्रत पूरी निष्ठा से करते हैं। व्रत रखने वाली महिला को परवैतिन भी कहा जाता है। चार दिनों के इस व्रत में व्रती को लगातार उपवास करना होता है। भोजन के साथ ही सुखद शैय्या का भी त्याग किया जाता है। पर्व के लिए बनाए गए कमरे में व्रती फर्श पर कंबल या चादर के सहारे रात बिताते हैं