हिमालयी राज्य उत्तराखंड में इस साल का मानसून 8 अक्टूबर को विदा हो चुका है और उसके बाद भी राज्य में आसमान कहर बरपा रहा है। राज्य के कुछ स्थानों पर वर्षा ने अक्टूबर में १२४ सालों का भी रिकार्ड तोड दिया। उत्तराखंड की ही तरह केरल में भी दम तोडता मानसून अचानक कहर बरपाने लगा। यही नहीं जिस शीतकाल में हिमालय पर नदियां तक जम जाती हैं और उनमें बहने वाला पानी बहुत कम हो जाता है उसी हिमालय पर ७ फरवरी २०२१ को ऋषिगंगा और धौलीगंगा में अचानक बाढ आ जाती है और सैकडों लोग हताहत हो जाते हैं। इसी तरह २०१३ में अचानक समय से काफी पहले हिमालय पर मानसून की चढाई का परिणाम केदारनाथ की आपदा के रूप में सामने आता है‚ जिसमें हजारों लोग मारे जाते हैं। प्रकृति के इस विचित्र मिजाज को अगर हम अब भी नहीं समझ पाए तो यह हमारी बेहद खतरनाक भूल होगी। ‘
साल का मानसून जब वापस लौटने लगता है तो अपने पीछे शीत ऋतु के लिए रास्ता बनाता जाता है। शीत ऋतु में वर्षा अवश्य होती है‚ मगर उसमें मानसून की जैसी बौछारें नहीं पडतीं। हमने इसी साल पहली बार फरवरी महीने की कडकडाती सर्दी में उत्तराखंड के हिम प्रदेश में ऋषि और धौली गंगा में विनासकारी बाढ देखी। अब मानसून लौटने पर नैनीताल जिले के रामनगर क्षेत्र में बादल फटने की घटना भी सुन ली। मौसम विभाग कहता है कि अक्टूबर की १९ तारीख को नैनीताल जिले के मुक्तेश्वर में ३४०.८ मिमी वर्षा दर्ज हुई‚ जो कि अब तक का रिकार्ड है। ठीक १२४ साल पहले १० जुलाई १९१४ को वहां २५४.५ मिलीमीटर वर्षा दर्ज की गई थी।
जाहिर है कि मुक्तेश्वर में इतनी वर्षा बरसात में भी कभी नहीं हुई थी। इसी प्रकार १९ अक्टूबर को ही पंतनगर में ४०३.२ मिमी वर्षा दर्ज की गई‚ जबकि इससे पहले वहां १९९० में सबसे अधिक २२२.८ मिमी वर्षा का रिकार्ड था। प्रकृति की इन विचित्र हरकतों को समझने और प्रकृति के कोप से बचने के उपाय करने के बजाय हम इसे स्वाभाविक मान कर आपदाओं का इंतजार कर रहे हैं। इस साल मानसून की गति असामान्य रहने से जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। उत्तराखंड ही क्योंॽ केरल में भी बारिश कहर बरपा रही है। हिमाचल प्रदेश में भी बारिश लगातार कहर बरपा रही है और अक्टूबर में एक बार फिर यहां अलर्ट जारी हुआ है। उत्तरी केरल और कर्नाटक के तटों से लगे दक्षिण–पूर्व अरब सागर में कम दबाव वाला क्षेत्र बनने की वजह से भी मॉनसून के लौटने में देरी हो रही है। कम दबाव वाले क्षेत्र अरब सागर से हवाएं केरल की तरफ चल रही हैं और इसके चलते मानसून अब समुद्री क्षेत्र तक लौट पाने की बजाय केरल के ऊपर ठहर चुका है और यहां जबरदस्त बारिश हो रही है। अगर अरब सागर में यही कम दबाव वाला क्षेत्र मानसून सीजन की शुरुआत (मई–जून) में बनता है‚ तो इसके आगे बढने की गति तेज हो जाती है। प्रकृति के इस बदले हुए मिजाज का कारण जलवायु परिवर्तन ही माना जा सकता है। भारत में मानसून का देर से लौटना एक बडी चिंता की बात है। दरअसल‚ कार्बन उत्सर्जन की वजह से पृथ्वी पर ग्लोबल वमिग का असर बढता जा रहा है। इसका असर आर्कटिक क्षेत्र में सबसे ज्यादा पड रहा है‚ क्योंकि यहां बर्फ काफी तेजी से पिघल रही है।
॥ इससे पश्चिमी यूरोप और पूर्वोतर चीन में समुद्र में उच्च दबाव का क्षेत्र बन जाता है और भ्रमणकारी लहरें अपनी पूर्व की दिशा बदलकर दक्षिण–पूर्व की तरफ चलने लगती हैं। ये लहरें मानसून सीजन के खत्म होने के दौरान भारत में एंट्री लेती हैं और समुद्र के ऊपरी वायुमंडल में गडबडियां पैदा करती हैं। अगर हमारे कार्य प्रकृति के अनुकूल हैं तो इसका सकारात्मक प्रभाव पडता है‚ जबकि प्रतिकूल काया के कारण पर्यावरण प्रदूषित होता है। उदाहरणार्थ मानव के लालच के कारण आवयकता से अधिक लकडी का प्रयोग‚ औद्योगीकरण व प्रदूषण के कारण पृथ्वी के औसतन ताप में बढोतरी हुई है। यह एक ऋणात्मक पर्यावरण का उपयुक्त उदाहरण है। पृथ्वी आज पहले की तुलना में गर्म हुई है‚ जिसका परिणाम भयावह हो सकता है। उदाहरणस्वरूप जैसे–जैसे पृथ्वी अधिक गर्म होगी वैसे–वैसे ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में बढोतरी/वैश्वीकरण असंतुलन के कारण अमेरिका व अफ्रीका में अधिक सूखा पडेगा‚ जिससे भुखमरी की स्थिति पैदा होगी।
वैश्विक तापमान वृद्धि‚ जलवायु परिवर्तन‚ ओजोन परत में छिद्र‚ तेजाब वर्षा से पारिस्थितिकी तंत्र पर कुप्रभाव पड रहा है। ग्रीन हाउस गैसों के बढते उत्सर्जन के कारण सम्पूर्ण विश्व के समक्ष कई खतरे उत्पन्न हो रहे हैं। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में पश्चिमी देशों में जो औद्योगिक विकास हुआ‚ उसके दुष्परिणाम अब हमारे सामने दिख रहे हैं क्योंकि असंख्य औद्योगिक कारखानों से जो ग्रीनहाउस गैसें निकलीं। वे वातावरण में संचित हो गई। कार्बन डाइऑक्साइड इन बढी ग्रीन हाउस गैसों के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। कृषि कार्य‚ लकडी‚ पेट्रोल‚ डीजल‚ कोयला‚ गैस‚ किरासन आदि के उपयोग से कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा ज्यादा निकलती है। तीन चीजें जो घातक मानी जाती उनमें ज्यादा कार्बन वातावरण में संचित होने के कारण जलवायु परिवर्तन पहले ही हो चुका है अर्थात वर्षा की कमी से सूखा ज्यादा पड रहा है और तापमान में वृद्धि हो गई है। इसके अलावा‚ तूफान‚ चक्रवात‚ सुनामी‚ वन में आग लगने की घटनाओं में तेजी से वृद्धि हो रही है। वर्तमान में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन उस स्थिति को बदतर बनाएगा। भविष्य में यदि यही गति‚ दशा और दिशा रही तो वातावरण बहुत ज्यादा प्रभावित होगा। अभी तक जितना जलवायु परिवर्तन हो चुका है उसके अनुकूलन के लिए भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का २.६ प्रतिशत ही खर्च कर रहा है‚ जिसे भविष्य में बढती समस्या के आलोक में कई गुना बढाने की आवश्यकता है। दरअसल‚ प्रकृति ने हमें पृथ्वी में सभी जीवनोपयोगी साधन उपलब्ध कराए हैं।
मनुष्य इनका अगर अपनी जरूरत के अनुरूप ही प्रयोग करता है तो इसका संतुलन नहीं बिगडेगा‚ लेकिन अगर लोभवश इनको अपनी आवश्यकता से अधिक ग्रहण करने का प्रयास करता है तो इसके पर्यावरण में असंतुलन से भयावह परिणाम होंगे‚ जिसका वह स्वयं भुक्तभोगी और उत्तरदायी होगा। आज महती आवश्यकता है कि जंगलों का अंधाधुंध कटान बंद हो तथा पृथ्वी में अब तक इसके हो चुके नुकसान की भरपाई के लिए अधिक–से–अधिक पेड–पौधे लगाकर हरित क्षेत्र को बढाया जाए। अगर मानव अब भी न चेता तथा उसने प्रकृति से खिलवाड जारी रखा तो वह स्वयं अपना विनाश को आमंत्रित करेगा।