बिहार में कांग्रेस और राजद के बीच सियासी घटनाक्रम पर नजर डालिये. सबसे पहले राजद ने कहा कि विधानसभा उपचुनाव में महागठबंधन मजबूती से लड़ेगा. इसके बाद कांग्रेस ने तारापुर और कुशेश्वरस्थान, दोनों ही सीटों से अपनी दावेदारी ठोक दी. इसके कुछ दिन बाद बयानबाजियों का क्रम और अचानक राजद ने दोनों ही सीटों से अपने उम्मीदवारों के नाम घोषित कर दिए. कांग्रेस ने गुस्सा दिखाया, बयानबाजी हुई और अंत में कांग्रेस ने भी अपने दो कैंडिडेट उतार दिये. इसके साथ ही यह बयान भी दिया कि समझिये महागठबंधन टूट गया. बिहार कांग्रेस प्रभारी ने साफ तौर पर कहा कि अगर राजद कुशेश्वरस्थान से अपना प्रत्याशी नहीं हटाता है तो महागठबंधन टूटना तय है. जाहिर है तल्खी बढ़ती गई. इसी बीच बीते 8 अक्टूबर को दिल्ली में दिवंगत राम विलास पासवान की पुण्यतिथि पर राहुल गांधी और लालू यादव की मुलाकात हुई. इसके तत्काल बाद ही भक्त चरण दास पटना पहुंचे और उनके सुर ढीले पड़ गए. अब वह कहने लगे कि महागठबंधन रहेगा या नहीं यह चुनाव के नतीजों पर निर्भर करेगा. जाहिर है एक बार फिर राजद के सामने कांग्रेस सरेंडर करती हुई दिख रही है.
दरअसल कन्हैया कुमार के कांग्रेस में आने के बाद सियासी जानकार इस बात की चर्चा करने लगे थे कि कांग्रेस ने शायद बिहार को लेकर लंबी प्लानिंग के तहत कन्हैया कुमार को पार्टी में शामिल किया है. चर्चा यह भी शुरू हो गई कि कन्हैया कुमार कांग्रेस का चेहरा हो सकते हैं. विधायक शकील अहमद खान जैसे नेता तो साफ तौर पर कहते हैं कि कांग्रेस को अपना अस्तित्व बचाने के लिए राजद से अलग होना ही पड़ेगा. पर हकीकत यह भी है कि कांग्रेस किसी भी तरह से यह हिम्मत नहीं जुटा पा रही है कि राजद से वह अलग होकर भी सोचेगी.
राजद-कांग्रेस: जुदा हुए, फिर साथ आए
बता दें कि वर्ष 1989 के बाद से बिहार में कांग्रेस की जनता में पकड़ इतनी ढीली पड़ गई है कि वह राजद की बैशाखी के बगैर चल पाने में खुद को सक्षम नहीं मानती. बीते तीन दशक के संबंधों पर दृष्टि डालें तो यह साफ है कि कांग्रेस और राजद के स्वार्थ आपस में कई बार टकराए हैं और कई बार अलग होने की कगार पर भी पहुंच गए. एक दो बार अलग होकर भी प्रयोग किया गया. वर्ष 2000 से अबतक दोनों दल तीन चुनाव अलग-अलग भी लड़ चुके हैं पर अंतिम परिणाम यही रहा कि ये दोनों ही दल फिर एक साथ आ गए.
क्या कांग्रेस की बिहार के लिए कोई लंबी रणनीति है?
बिहार के राजनीति के जानकार कहते हैं कि कई बार दोनों ही बड़ी पार्टियों के बीच टकराव की वजह सामान्य बातें भी बनती रही हैं. इस बार भी महज दो विधानसभा सीटों के उपचुनाव को लेकर दोनों ही पार्टियों ने अपने रास्ते अलग कर लिए. अब सबकी निगाहें उपचुनाव का नतीजों पर टिक गई हैं कि क्या कांग्रेस-राजद फिर एक बार चुनाव बाद एक साथ होते हैं या नहीं? अगर ऐसा होता है तो सियासी जानकारों की नजर में एक बार फिर साबित हो जाएगा कि कांग्रेस की अपने भविष्य को लेकर कोई योजना नहीं है.
बिहार विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस और राजद की नूराकुश्ती की खबरों के बीच लालू यादव और राहुल गांधी की दिल्ली में मुलाकात.
क्या कहता है राजद-कांग्रेस के साथ का इतिहास?
यह इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि बिहार में निकट भविष्य में 2024 में लोकसभा चुनाव हैं और 2025 में विधानसभा चुनाव होंगे. ऐसे में कांग्रेस के पास अभी लंबा वक्त है कि वह एकला चलो की नीति पर आगे बढ़ सकती है और विधानससभा उपचुनाव के बहाने राजद से अलग होने का एक बड़ा बहाना भी साबित हो सकता है. हालांकि सवाल एक बार फिर यही है कि क्या कांग्रेस ऐसा करने की हिम्मत जुटा पाएगी? दरअसल बिहार में जब 1990 में लालू यादव सत्ता में आए थे तो उन्होंने कांग्रेस को ही परास्त किया था. जाहिर है यह तो कांग्रेस के लिए और भी पीड़ादायक होना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
कांग्रेस के 24 में 23 विधायकों को लालू ने बनाया मंत्री
वर्ष 2000 की बात है. तब झारखंड भी बिहार का हिस्सा था. लालू यादव तब सरकार बनाने के लिए पर्याप्त संख्या नहीं जुटा पाए थे. इसी समय लालू यादव ने सोनिया गांधी से कांग्रेस का सहयोग मांगा था. उस वक्त 324 सदस्यीय विधानसभा में सरकार बनाने के लिए लालू यादव को कम से कम 163 विधायकों की आवश्यकता थी, लेकिन उनके 123 ही विधायक थे. कांग्रेस विधायकों की संख्या 24 थी. वामदलों और कांग्रेस को साथ लेकर लालू प्रसाद ने राबड़ी देवी के नेतृत्व में राजद की सरकार बनाई थी. कांग्रेस के 23 विधायक मंत्री बनाए गए और सदानंद सिंह को विधानसभा अध्यक्ष बनाया गया.
रामविलास के मोह में लालू ने कांग्रेस को दिखाया था ठेंगा!
चार साल बड़े ही अच्छे से दोस्ती चली और यह 2005 तक चला. उस वर्ष विधानसभा चुनाव में दोनों ही दलों की कई जगहों पर फ्रेंडली फाइट भी हुई. दोस्ती तो बरकरार रही, लेकिन नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बन गई. इसके बाद वर्ष 2009 में परिस्थितियां बदल गईं और राम विलास पासवान और लालू साथ आ गए. कांग्रेस के लिए सिर्फ तीन सीटें छोड़ी गईं और शेष 37 सीटों पर रामविलास-लालू के कैंडिडेट मैदान में उतरे. राजद ने यहां भी एकतरफा घोषणा की थी ऐसे में कांग्रेस बौखला गई. राजद को सबक सिखाने को राजद के कई बागियों को टिकट दिए और सभी 40 संसदीय सीटों पर अपने प्रत्याशी उतार दिए. परिणाम यह रहा कि राजद चार कांग्रेस सिर्फ 2 सीटें ही जीत पाई.
आरजेडी-कांग्रेस अलग हुई तो ये रहा नतीजा
इस बीच एनडीए (भाजपा-जदयू गठबंधन) मजबूत होती जा रही थी, लेकिन कांग्रेस-राजद आपस में उलझे रहे. तल्खी बरकरार रही और 2010 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस चार और राजद सिर्फ 22 सीटें ही जीत पाई. विधानसभा चुनाव में राजद की सबसे बड़ी हार साबित हुई. लोकसभा 2014 तक दोनों दल मिले तो सही, लेकिन सीटों पर किचकिच जारी रही. इस वर्ष कांग्रेस 12 सीटों पर चुनाव लड़ी और वह केवल दो सीटों पर जीती, जबकि 27 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन, चार पर ही जीत हासिल हुई थी. इसके बाद 2019 लोकसभा चुनाव में दोनों दल साथ लड़े, लेकिन नतीजा हुआ कांग्रेस ने एक सीट जीती तो राजद का सूपड़ा ही साफ हो गया.
2020 के विधानसभा चुनाव से राजद ने ली सबक!
इसके बाद 2020 के विधानसभा चुनाव में सीट बंटवारे को लेकर कांग्रेस-राजद के बीच खींचतान जारी रही. कांग्रेस ने 243 सदस्यीय विधानसभा सीटों में 70 पर अपने उम्मीदवार उतारे, लेकिन जीत महज 19 को ही मिली. जबकि राजद ने 142 सीटों पर प्रत्याशी उतारे और उनके 75 विधायक चुने गए. अभी महागठबंधन में शामिल राजद, कांग्रेस और वामदलों को मिलाकर 110 विधायक हैं. यानी बहुमत से महज 12 कम. ऐसे में कांग्रेस यह मानती है कि अगर तब कांग्रेस 35 से 40 सीटों पर लड़ती तो शायद आज बिहार में महागठबंधन की सरकार होती. जाहिर है राजद को यह टीस सालती रहती है कि हाथ में आई सत्ता कांग्रेस की जिद की वजह से छिटक गई.
चुनाव बाद ही पता लगेगा फाइट फ्रेंडली थी या रीयल!
ऐसे में, राजद और कांग्रेस ने तारापुर और कुशेश्वरस्थान में क्या सोचकर अपने उम्मीदवार उतारे हैं, यह तो किसी को नहीं पता, लेकिन जिस अंदाज में लालू यादव और राहुल गांधी की दिल्ली में मुलाकात हुई और उसके बाद से ही कांग्रेस के उन शीर्ष नेताओं के भी तेवर ढीले पड़ते दिख रहे हैं जो यह कह रहे थे कि महागठबंधन टूट जाएगा, देखना दिलचस्प रहेगा कि क्या उपचुनाव के बाद कांग्रेस-राजद एक बार फिर एक हो जाएगी और यह साबित हो जाएगा कि कांग्रेस में राजद से अकेले होने की कूवत नहीं है, या फिर यह साबित हो जाएगा कि दोनों ही पार्टियों के बीच आपसी तालमेल के साथ एक विशेष रणनीति के तहत ही एक दूसरे के खिलाफ उम्मीदवार उतारे थे.