लोकतंत्र में सरकारें इकबाल से चलती हैं और केवल इंसाफ करना भर पर्याप्त नहीं होता‚ इंसाफ करते दिखना भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है। अब सूबे और केंद्र की सरकारों के सामने यही चुनौती है। माफियाओं और कानून से खिलवाड़ करने वालों के साथ वैसे भी केंद्र की मोदी सरकार और उत्तर प्रदेश की योगी सरकार सख्ती से पेश आती रही हैं। इस मामले में भी मुख्य आरोपित आशीष मिश्र के खिलाफ कानूनसम्मत कार्रवाई की जा रही है‚ जबकि उसके मंत्री पिता को दिल्ली तलब कर उनसे भी सफाई मांगी गई है। सरकार और संगठन से जुड़े हर शख्स को विवादित बयान और वीडियो से बचने की सख्त हिदायत दे दी गई है ॥ यासत में बड़बोलापन कितना भारी पड़ सकता है‚ इसका सबसे ताजा नमूना हैं केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र टेनी। मंत्री जी करीब एक पखवाड़े पहले उत्तर प्रदेश की पलिया विधानसभा के एक कस्बे में जनसभा को संबोधित करने पहुंचे थे। जनसभा के रास्ते में किसानों ने विरोध कर दिया‚ तो मंत्री जी इतने बिफरे कि सभा के मंच से ही दो मिनट में विरोधियों को चित करने वाली अपनी पुरानी ‘पहलवानी’ पहचान का हवाला दे डाला। साथ में किसानों को धमका भी गए कि अगर उन्होंने चुनौती स्वीकार कर ली‚ तो उन्हें पलिया ही नहीं‚ लखीमपुर भी छोड़ना पड़ जाएगा।
अब देखिए हो क्या रहा हैॽ बेटे को गिरफ्तारी से और अपने मंत्री पद को इस्तीफे से बचाने के लिए अजय मिश्र खुद पलिया ही नहीं‚ लखीमपुर तक छोड़कर दिल्ली की दौड़ लगा रहे हैं और विरोधी ही नहीं‚ अपनी ही पार्टी वाले कह रहे हैं कि अब तो सुधर जाओ। वजह बनी है लखीमपुर खीरी में बवाल और हिंसा में नौ लोगों की मौत‚ जिसके बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में तूफान मचा हुआ है और लखनऊ से दिल्ली तक बीजेपी को इंसाफ करने की दुहाई देनी पड़ रही है। पूरे विवाद की जड़ बने हैं अजय मिश्र टेनी‚ जिनका बेटा आशीष मिश्र चार किसानों को गाड़ी से कुचल कर मौत के घाट उतारने के जघन्य कृत्य का मुख्य आरोपित बनाया गया है। यानी जिसके पिता के कंधों पर ही देश में कानून का राज चलाने की जिम्मेदारी है‚ उसी बेटे पर खुलेआम देश के कानून की धज्जियां उड़ाने को लेकर उंगली उठ रही है। समूचा घटनाक्रम वैसे भी निंदनीय है और मंत्री से जुड़ा होने के कारण सियासी भी बन गया है। कांग्रेस और समाजवादी पार्टी से लेकर तृणमूल कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल जैसे दूसरे राज्यों में सक्रिय क्षेत्रीय दल तक पीडि़त परिवारों के बीच अपनी मौजूदगी दर्ज कराने की होड़ लगाते दिखे हैं। विपक्षी दल होने के नाते ऐसा करना इन दलों की सामाजिक–राजनीतिक जिम्मेदारी भी बनती है‚ लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि राज्य और केंद्र सरकार पर हो रहे चौतरफा हमलों की एक वजह उत्तर प्रदेश में आने वाले दिनों में होने वाले विधानसभा चुनाव भी हैं। हालांकि विवाद बढ़ने के बावजूद मोदी–योगी सरकार और बीजेपी संगठन ने सधे और नपे–तुले अंदाज में कदम उठाए हैं।
योगी सरकार ने इस मामले में तत्परता दिखाते हुए पीडि़तों को मुआवजे का ऐलान कर विरोध की आग को काफी हद तक काबू में कर लिया है। साथ में शुरु आती बंदिशों के बाद विपक्षी दलों को लखीमपुर खीरी जाने की अनुमति देकर यह भी तय कर दिया है कि इस मामले में विपक्ष के और राजनीति करने के अवसर आने वाले समय में सीमित होते चले जाएंगे। फौरी तौर पर प्रभावी दिख रही इस राजनीतिक कसरत के बावजूद यह भी सच है कि इस घटना ने बीजेपी की चिंता को हद से ज्यादा बढ़ा दिया है। पार्टी नेतृत्व भले ही ऊपर से शांत दिखने वाले समुद्र की तस्वीर पेश कर रहा हो‚ लेकिन सतह के नीचे काफी खलबली मची दिख रही है। चार महीने बाद उत्तर प्रदेश में चुनाव होने हैं। एक तरफ केंद्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ लगातार प्रदेश के विकास का रोडमैप और अपनी सरकार की उपलब्धियों को लेकर जनता के बीच पहुंच रहे हैं‚ वहीं इस घटना में पार्टी के ही एक मंत्री के बेटे की कथित संलिप्तता से जनता के बीच जो संदेश गया है‚ उसे पार्टी की सेहत के लिए अच्छा नहीं माना जा रहा है। एबीपी–सी वोटर्स का ताजा सर्वे इस ओर एक इशारा है‚ जिसमें शामिल ७० फीसद लोगों ने माना है कि लखीमपुर कांड़ से बीजेपी को नुकसान हुआ है। अंदरखाने की खबर यह है कि बीजेपी संगठन के साथ–साथ संघ में भी इस घटना को लेकर काफी नाराजगी है। कोरोना महामारी के दौरान राज्य की जनता को हुई परेशानी और उससे उपजे रोष को कम करने के लिए संघ अपने कार्यकतओं के माध्यम से लंबे समय से प्रदेश में सक्रिय है। संघ की इस सक्रियता से लोगों का गुस्सा काफी हद तक कम हुआ है‚ लेकिन पिछले दो हफ्तों के दौरान घटी दो बड़ी घटनाओं ने बीजेपी को चुनाव से पहले बड़ा झटका दिया है। पहले कानपुर के कारोबारी की गोरखपुर में हत्या मामले में यूपी पुलिस की संदिग्ध भूमिका और अब लखीमपुर खीरी में एक मंत्री के बेटे का हाथ सामने आने से उस पूरी मेहनत के परिणाम पर सवालिया निशान लग गया है।
संघ हमेशा से हर तरह के कामकाज में पारदशता का पक्षधर रहता आया है और वक्त–वक्त पर इस बाबत सरकार को आगाह भी करता रहा है। अपने स्तर पर सरकार भी इस मामले में सावधानी बरतती आई है‚ लेकिन इस मामले को देखें तो कहीं–न–कहीं चूक अवश्य हुई है। अजय मिश्र टेनी के पुराने रिकॉर्ड खंगालने की बात हो या इस मामले में हुई शुरुआती हीला–हवाली‚ ये वो लापरवाहियां हैं जिन्हें टाला जा सकता था। अब विपक्षी दल खासकर कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों को आधार बनाने के साथ ही इलाहाबाद हाई कोर्ट में लंबित एक मामले का हवाला देकर अजय मिश्र के बहाने बीजेपी को कठघरे में खड़ा कर रही है। कांग्रेस ने अजय मिश्र पर हत्या के एक पुराने मामले को १७ साल तक सूचीबद्ध नहीं करने और अब साढ़े तीन साल से आदेश सुरक्षित होने के बावजूद फैसला नहीं आने पर सवाल उठाए हैं। अदालत की अवमानना का खतरा उठाते हुए कांग्रेस इतना आगे बढ़ी है‚ तो इससे विपक्ष के अंदर इस मामले को अभी और आगे ले जाने की बैचेनी भी स्पष्ट दिखाई पड़ती है। लखीमपुर खीरी की घटना का असर यह हुआ है कि किसान आंदोलन अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश से निकल कर रु हेलखंड और मध्य यूपी तक पहुंच गया है। विपक्ष अब इसे बुंदेलखंड और पूवाचल तक ले जाकर इसे समूचे उत्तर प्रदेश का मुद्दा बनाने में जुट गया है।
लोकतंत्र में सरकारें इकबाल से चलती हैं और केवल इंसाफ करना भर पर्याप्त नहीं होता‚ इंसाफ करते दिखना भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है। अब सूबे और केंद्र की सरकारों के सामने यही चुनौती है। माफियाओं और कानून से खिलवाड़ करने वालों के साथ वैसे भी केंद्र की मोदी सरकार और उत्तर प्रदेश की योगी सरकार सख्ती से पेश आती रही हैं। इस मामले में भी मुख्य आरोपित आशीष मिश्र के खिलाफ कानूनसम्मत कार्रवाई की जा रही है‚ जबकि उसके मंत्री पिता को दिल्ली तलब कर उनसे भी सफाई मांगी गई है। सरकार और संगठन से जुड़े हर शख्स को विवादित बयान और वीडियो से बचने की सख्त हिदायत दे दी गई है। अच्छा होगा अगर इस मामले को मिसाल बनाकर सियासत में पारदशता की ऐसी परंपरा भी शुरू कर दी जाए‚ जिसमें कानून से खिलवाड़ के दाग लगे शख्स को शासन तंत्र से जुड़े किसी भी स्तर के लिए अयोग्य कर दिया जाए। वैसे मौजूदा शासन व्यवस्था में इस विचार के प्रति पहले से भी काफी समर्थन है‚ और यह शायद इसी सोच के दबाव का नतीजा है कि पहले नोटिस को अनदेखा करने के बाद मुख्य आरोपित आशीष मिश्रा को दूसरे नोटिस पर क्राइम ब्रांच के सामने पेश होना पड़ा है। यह घटनाक्रम इस बात का संकेत है कि इस मामले में भी इंसाफ अवश्य होगा। बस सवाल उस इंसाफ तक पहुंचने के समय का है‚ क्योंकि हर गुजरता पल संदेह की आंच और सवालों की आग को तेज कर रहा है।