सनातन संस्कृति में देवियों की आराधना को विशेष तौर पर शक्ति–पूजा का परिचायक माना जाता है। भारत में शक्ति को इष्टदेवी मानकर पूजा–अर्चना करने का सिलसिला सिंधु–घाटी सभ्यता से चला आ रहा है। हड़प्पा और मोहनजोदडो की खुदाई से मातृदेवी की अनेक मुर्तिया मिली हैं‚ ऋग्वेद में अदिति‚ उषा‚ सरस्वती‚ श्री लक्ष्मी आदि देवियों की उपासना का वर्णन मिलता है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में शक्ति की पूजा–दुर्गा‚ काली‚ भवानी‚ चामुंडा‚ रुद्राणी‚ लक्ष्मी और सरस्वती आदि अनेक रूपों में की जाती है। महाभारत के भीष्म पर्व से पता चलता है कि कृष्ण की सलाह पर अर्जुन ने युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए देवी दुर्गा की आराधना की थी।
महाभारत के विराट पर्व में वर्णन मिलता है कि धर्मराज युधिष्ठिर ने आदिशक्ति को विंध्यवासिनी व महिषामर्दनी कहकर देवी की स्तुति की है। देवीसूक्त में नवदुर्गा के नौ रूपों–शैलपुत्री‚ ब्रह्मचारिणी‚ चंद्रघंटा‚ कूष्मांडा‚ स्कंदमाता‚ कात्यायनी‚ कालरात्रि‚ महागौरी और सिद्धिदात्री की उपासना का वर्णन मिलता है। आध्यात्मिक साधना के नजरिए से देखा जाए तो मनुष्य के शरीर के रोम–रोम में समाई हुई जीवनीशक्ति ही नवदुर्गा है। नवरात्रि शब्द में नौ विशेष रात्रि का बोध होता है‚ हमारे शरीर में भी नौ के अंक का विशेष महत्व है। दरअसल‚ देवी दुर्गा आदिशक्ति का स्वरूप है‚ और मनुष्य के शरीर में जो नौ द्वार हैं; इन नौ द्वार के माध्यम से व्यक्ति जीवनीशक्ति प्राप्त करता है। गौरतलब है कि सनातन धर्म में ‘रात्रि’ शब्द सिद्धि का प्रतीक माना जाता है‚ इसलिए शक्ति की साधना करने वाले मनीषियों ने दिन की बजाय रात्रि को अधिक महत्व दिया। असल में‚ तपस्वियों ने दिन में शोर–शराबे की वजह से रात्रि–जागरण करके और खास तौर पर शरद ऋतु की नौ विशेष रात्रियों में प्राणायाम व एकांत ध्यान–साधना को ज्यादा तरजीह दी। कालांतर में लोगों ने अपनी सुविधा व स्वार्थ के अनुसार इसे भगवती जागरण से जोड़ दिया। ऋषियों ने प्राणिक चेतना को परमात्मा का रूपक मानते हुए उसे महादेवी का नाम देकर जगत का पालन व संहार करने वाली आदिशक्ति कहा और इसी चैतन्यशक्ति को अष्टांगयोग में ‘कुंडलिनी–शक्ति’ कहा गया‚ जो हरेक व्यक्ति के शरीर के मूलाधार–चक्र में सुप्तावस्था में मौजूद है।
असलियत में मनुष्य का काम–व्यवहार‚ लालसाएं‚ विषय–वासनाएं‚ भूख और प्यास सभी स्वाधिष्ठान–चक्र से संचालित होते हैं। नवरात्रि के दौरान नौ दिनों तक व्रत–उपवास‚ सात्विक–आहार लेने व ध्यान–साधना करने से प्राणदायिनी शक्ति का संपूर्ण शरीर में संचार होता है और प्राणदायिनी ऊर्जा के संचारित होने के साथ–साथ कुंडलिनी–शक्ति का जागरण होता है‚ और कुंडलिनी–शक्तिके जागरण से इसका सहसार–चक्र में मिलाप होता है तो मनुष्य विवेकशील‚ परिपक्व व प्रज्ञावान बनता है। दरअसल‚ वैदिक ऋषि उच्चस्तरीय शोधकर्ता एवं श्रेष्ठ वैज्ञानिक थे। वे कर्मकांड व धार्मिक प्रतीकों से बंधकर जीवनयापन करने की बजाय बहुत व्यावहारिक‚ परोपकारी व त्यागमयी जीवन जीने में विश्वास रखते थे। असलियत में ऋषिगण अपने दैनिक हितों की पूर्ति के लिए ज्योतिष विज्ञान का सहारा नहीं लेते थे‚ बल्कि वे अपने समय के जाने–माने खगोलशास्त्री थे‚ जिन्होंने शोध द्वारा जान लिया था कि ऋतुओं के अलग–अलग कालखंडों व मौसम परिवर्तन के दौरान चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण का व्यक्तिके नाड़ी–संस्थान पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ऋषियों और मनीषियों को इस बात की जानकारी थी कि प्रकृति भी ऋतु परिवर्तन के दौरान पुराने को छोड़कर कर नवीनता को धारण करती है।
वह जानते थे कि दो ऋतुओं के संधिकाल के दौरान शरीर की जठराग्नि (पाचन शक्ति) मंद पड़ जाती है‚ जिससे मानव शरीर के भीतर जो प्राणदायिनी शक्ति है वह कुछ समय के लिए शिथिल हो जाती है। नवरात्रि पर्व सिर्फ एक त्योहार नहीं है। सही मायने में यह त्याग‚ धैर्य‚ परोपकार और इंद्रियों के संयम द्वारा आत्मशुद्धि व खुद को संतुलित करने का वर्ष में दो बार प्राकृतिक ढंग से हासिल होने वाला आध्यात्मिक अवसर है। व्यावहारिक बात यह है कि नौ दिनों तक व्रत–उपवास व अल्प मात्रा में हल्का व सात्विक आहार ग्रहण करने से हरेक साधक की जीवनीशक्ति नवऊर्जा से चैतन्य होकर ऊपर उठती हुई महसूस होती है। वैसे भी कोई त्योहार हो या धार्मिक उत्सव‚ उसे परंपरा की दृष्टी से नहीं प्रयोग की तरह देखना चाहिए। आम तौर पर देखा जाए सनातन धर्म में हरेक त्योहार का प्रायोगिक परीक्षण है‚ शारदीय नवरात्रों के समापन पर दशहरे का त्योहार आंतरिक विकारों पर जीत हासिल करने की प्रेरणा देता है।