मुजफ्फरनगर की ५ सितम्बर की ऐतिहासिक किसान महापंचायत के महत्व की चर्चा करते हुए लगभग सभी टिप्पणीकारों ने किसान आंदोलन के स्पष्ट से स्पष्टतर होेते राजनीतिक स्वर को दर्ज किया है। इसके साथ ही या इसी के हिस्से के तौर पर यह भी दर्ज किया गया है कि पिछले नौ महीने से ज्यादा से जारी इस किसान आंदोलन ने खासतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आम जनता के बीच सांप्रदायिक विभाजन की उस खाई को अगर पूरी तरह से पाटा नहीं भी हो तब भी काफी हद तक भर दिया है‚ जो २०१३ के मुजफ्फरनगर–शामली क्षेत्र के सांप्रदायिक दंगे से पैदा हुई थी। ॥ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के स्वतंत्रता के बाद के इतिहास के इस सबसे भयानक दंगे के लिए इधन जुटाने से लेकर तीली लगाने तक में‚ मौजूदा सत्ताधारियों के संगठित–असंगठित प्रयासों की भूमिका पर फिर भी अलग–अलग रायें हो सकती हैं‚ लेकिन यह निर्विवाद है कि इस दंगे से पैदा हुए बहुसंख्यक समुदाय के ध्रुवीकरण का लाभ संघ परिवार के राजनीतिक बाजू भाजपा और सिर्फ भाजपा को मिला था। इस ध्रुवीकरण ने इस क्षेत्र में परंपरागत रूप से चले आते तथा स्वतंत्रता के संघर्ष के दौरान तथा उसके बाद के भी किसान आंदोलनों से जिनमें चौधरी चरणसिंह की किसानों के हितों के लिए संघर्ष की तथा महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व वाले किसान आंदोलनों की परंपरा खास है पुख्ता हुए हिंदू और मुसलमान जाट किसानों के भाईचारे को पूरी तरह से छिन्न–भिन्न कर दिया था। इसी ने‚ परंपरागत रूप संघ–भाजपा के लिए दुजय रहे इस क्षेत्र में २०१४ के आम चुनाव में मोदी की झाडूमार जीत का रास्ता बनाया था।
उसके बाद २०१७ के विधानसभा चुनाव तक और काफी हद तक २०१९ के आम चुनाव तक भी भाजपा इसी के सहारे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अभूतपूर्व चुनावी कामयाबियां हासिल रही थी। किसान आंदोलन सांप्रदायिक विभाजन की इस खाई को जिस हद तक पाट देगा उसी हद तक भाजपा के लिए इन पिछली चुनावी कामयाबियों को दोहराना मुश्किल जाएगा। इस सचाई को जितना किसान जानते हैं‚ उतना ही भाजपा और संघ परिवार भी जानते हैं। इस खाई के पाटे जाने की प्रक्रिया तो तभी शुरू हो गई थी‚ जब तीन कृषि कानूनों की वापसी और न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी का कानून बनाए जाने के मुद्दे पर‚ किसान संगठनों की व्यापक लामबंदी शुरू हुई। ‘दिल्ली चलो’ के नारे पर दिल्ली की सीमाओं पर लाखों किसानों के डेरा डालने के साथ‚ एक नई गुणात्मक लंबी छलांग लगाई। अब किसान आंदोलन ने एक अखिल भारतीय आंदोलन का रूप ले लिया है। अगर सत्ताधारियों ने शुरू से विभाजन के हथियार से इस आंदोलन को दबाने की कोशिश की तो उसने इस आंदोलन को उतनी ही गहराई से इसका एहसास कराया कि उसकी सबसे बड़ी ताकत उसकी एकता ही है। आंदोलनकारी किसानों ने बांटने की हरेक कोशिश का जवाब किसान के रूप में अपनी अखिल भारतीय पहचान को ही मजबूत से मजबूत कर के दिया।
किसान पहचान ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया। करीब सात साल के अंतराल के बाद‚ हिंदू और मुसलमान किसान एक साथ आए। मोर्चा एक‚लक्ष्य एक‚ दुश्मन एक। पहले समझा फिर माना गया कि बंटना गलती थी‚ दंगा भूल थी। और जब २६ जनवरी के शासन प्रायोजित तमाशे को बहाना बनाकर‚ किसानों को कुचलने की कोशिश की गई‚ उसके फौरन बाद हुई पहली ही बड़ी किसान महापंचायत में शामिल होकर‚ अगर मुसलमान किसान नेताओं ने सारे किसानों की एकता का एलान किया‚ तो दूसरी ओर जाट किसान नेताओं ने भी सार्वजनिक रूप से माना कि २०१३ में उनसे बड़ी गलती हुई थी। इसके साथ शुरू हुई पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों की दंगों से पहले की उस एकता को फिर से हासिल करने की ओर यात्रा‚ जिसके बल पर चरण सिंह से लेकर महेंद्र सिंह टिकैत तक के नेतृत्व में किसानों ने बार–बार अपनी ताकत दिखाई थी और शासन से मांगें मनवाई थी। महेंद्र सिंह टिकैत की हर सभा में उनके साथ मंच पर बैठने वाले अति–सम्मानित मुस्लिम किसान नेता जौला मंच पर राकेश टिकैत की बगल में थे। लोगों को लगा कि महेंद्र सिंह टिकैत के आंदोलनों वाले दिन लौट आए हैं।
आंदोलनकारी किसानों ने संघ–भाजपा के सांप्रदायिक खेल का देसी इलाज हमारे सामने रख दिया है। देसी इलाज इस माने में कि यह इलाज सांप्रदायिकता–धर्मनिरपेक्षता की आकदमिक बहसों से कम और किसानों के अपने हितों के लिए संघर्ष के तकाजों से ही ज्यादा निकला है। मजदूर वर्ग को शायद दूसरों से कम पर सभी मेहनत–मशक्कत करने वाले तबकों को‚ सांप्रदायिक खेल का यह देसी इलाज करना सीखना होगा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों की तरह इस इलाज की असली शिक्षा तो अपने वास्तविक हितों के लिए संघर्ष की पाठशाला में ही मिलती है। इस पढ़ाई के बिना मौजूदा सत्ताधारियों के बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक खेल की सारी आलोचनाएं अधूरी हैं।
यह याद दिलाना इसलिए और भी जरूरी है कि देश के कानून‚ अदालतों‚ चुनाव आयोग समेत विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं के बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिकता के खेलों के प्रति नरमी से लेकर सहानुभूति तक दिखाने के चलते आज राजनीतिक–चुनावी होड़ को कमोबेश एक बहुसंख्यकवादी होड़ में बदल दिया है। इन हालात में अनेक अन्यथा धर्मनिरपेक्ष पार्टियां भी बहुसंख्यकवादी प्रतीकों का सहारा लेने में भाजपा से कमोबेश होड़ लेती दिखाई देती हैं क्योंकि उन्हें डर रहता है कि संघ परिवार कहीं उन्हें हिंदू–विरोधी साबित कर के मुकाबले से पहले ही बाहर न कर दे। कांग्रेस‚ तृणमूल कांग्रेस‚ टीआरएस आदि अनेक पार्टियों के पीछे–पीछे‚ अब अयोध्या यात्रा आदि के जरिए आम आदमी पार्टी भी इस होड़ में शामिल हो गयी है‚ लेकिन यह कार्यनीति भी हर बार विफल ही हुई है। बहुसंख्यकवादी खेल का इलाज तो वही है जो किसान आंदोलन ने दिखाया है और मेहनतकशों के दूसरे आंदोलन भी अपने–अपने दायरे में दिखाते रहे हैं। आजादी की लड़ाई में भी तो गांधी जी के नेतृत्व में देश ने यही देसी इलाज आजमाया था। ॥ अब किसान आंदोलन ने एक अखिल भारतीय आंदोलन का रूप ले लिया है। अगर सत्ताधारियों ने शुरू से विभाजन के हथियार से इस आंदोलन को दबाने की कोशिश की तो उसने इस आंदोलन को उतनी ही गहराई से इसका एहसास कराया कि उसकी सबसे बड़ी ताकत उसकी एकता ही है।