राजनीति में न तो मुद्दे स्थायी होते हैं‚ न विचारधारा। देश‚ काल और परिस्थिति के हिसाब से ये बदलते रहते हैं। एक वक्त था जब बसपा का नारा बहुजन समाज को ध्यान में रखकर लगाया जाता था‚ अब वक्त बदल चुका है‚ सो बसपा की राजनीति ने भी करवट ली है। सालों बाद फिर से बसपा ने सोशल इंजीनियरिंग फार्मूला के तहत ब्राह्मण समाज की अहमियत समझी है और इन्हें किसी भी कीमत पर अपने पाले में करना चाहती है। वैसे तो उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण वोट महज ११–१२ फीसद ही हैं‚ इसके बावजूद बसपा को लगता है कि ब्राह्मण समाज भाजपा से नाराज है‚ और इस बार चुनाव में कमल का साथ नहीं देगा। ब्राह्मण समाज के भाजपा के प्रति गुस्से का फायदा बसपा उठाना चाहती है और इसीलिए पार्टी ने पूरे प्रदेश में ब्राह्मण सम्मेलन–जिसका नाम बदलकर प्रबुद्ध सम्मेलन किया गया–का आयोजन किया और ब्राह्मण हित की बात कह रही है। हालांकि गौर करने वाली बात यह भी है कि ब्राह्मणों के प्रति भाजपा और बसपा ही नहीं‚ बल्कि समाजवादी पार्टी‚ कांग्रेस और आम आदमी पार्टी भी इस वर्ग को फायदे के तौर पर देख रही हैं। अतीत के पन्ने पलटें तो मालूम पड़े़गा कि २००७ में भी बसपा ने इसी तरह की सोशल इंजीनियरिंग से सत्ता हासिल की थी। मायावती को यह इल्म है कि उनका कोर वोटर दलित उन्हें छोड़़कर कहीं नहीं जाएगा। इस गणित से दलित‚ ब्राह्मण और अल्पसंख्यक वोट उनकी झोली में आएंगे तो सत्ता भी स्वाभाविक रूप से उन्हीं के पास पहुंचेगी। वैसे बात दीगर है कि मायावती ने हाल के वर्षों में न तो दलितों की आवाज उठाई न अल्पसंख्यकों का सहारा बन सकीं। अपनी अलग शैली की राजनीति के लिए जानी जाने वाली मायावती का यह सियासी गुणा–गणित कितना फायदेमंद रहेगा‚ देखना दिलचस्प होगा। हां‚ भाजपा को अब नये सिरे से अपनी राजनीतिक गोटियां चलनी होंगी। ब्राह्मण वोटर भले यादव व मुस्लिम वोटर के मुकाबले संख्या में कम हैं‚ मगर सरकार बनाने और बिगाड़़ने की ताकत जरूर रखते हैं। यही वजह है कि प्रदेश के सियासी रण में उतरने वाली हरेक राजनीतिक पार्टी हिंदुत्व की राजनीति करने को मजबूर है। मायावती के लिए निस्संदेह २०२२ का चुनाव उनके वजूद से जुड़़ा है‚ लिहाजा उनके हर दांव पर नजर रखनी होगी।
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