भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव का पावन पर्व जन्माष्टमी सोमवार भाद्र कृष्ण को अर्द्धरात्रि व्यापनी अष्टमी तिथि को रोहिणी नक्षत्र में मनाया जायेगा। मध्यरात्रि में लड्डू गोपाल भगवान के साथ माता देवकी‚ वासुदेव‚ बलदेव‚ नंद‚ यशोदा की भी पूजा–अर्चना की जाएगी। अष्टमी तिथि‚ रोहिणी नक्षत्र तथा दिन सोमवार तीनों का एक साथ मिलना अत्यंत दुर्लभ एवं पुण्यकारक है। संतान सुख‚ वैवाहिक सुख‚ प्रेम की प्रगाढता‚ सुख–समृद्धि‚ शांति‚ उन्नति‚ आपसी सद्भावना की कामना से इस दिन बाल कृष्ण की पूजा उत्तम होगी। शास्त्रों में जन्माष्टमी के व्रत को व्रतराज कहा गया है। भविष्य पुराण के अनुसार इस व्रत को करने से अकाल मृत्यु‚ गर्भपात‚ वैधव्य‚ दुर्भाग्य एवं कलह नहीं होते हैं। व्रत के प्रभाव से श्रद्धालु सांसारिक सुख के साथ विष्णु लोक में निवास पाता है।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर रोहिणी नक्षत्र का होना बेहद शुभ होता है। इस नक्षत्र में योगेश्वर श्रीकृष्ण का पूजन सुख–शांति तथा समृद्धि देने वाला माना गया है। साधना तथा नवीन वस्तुओं की खरीदी के मान से भी यह दिन सर्वोतम है। कई वर्षों बाद गृहस्थ एवं वैष्णवजन दोनों ही सोमवार को बांके बिहारी का ५२४८वां जन्मोत्सव मनाएंगे। जन्माष्टमी निशिता पूजा का समयः मध्य रात्रि ११.५९ बजे से १२. ४४ बजे तक ॥ निशिता पूजा शुभ मुहूर्त की अवधिः ४५ मिनट ॥ भारतीय ज्योतिष विज्ञान परिषद के सदस्य राकेश झा ने पंचांगों के हवाले से बताया कि सोमवार को जन्माष्टमी वृष राशि के चंद्रमा की साक्षी में सर्व पापों को हरने वाली जयंती योग‚ कौकिल करण‚ वृष लग्न‚ रोहिणी नक्षत्र के साथ अतिपुण्यकारी सर्वार्थ सिद्धि योग में मनेगी। गौतमी तंत्र नामक ग्रन्थ व पद्मपुराण के अनुसार कृष्णाष्टमी सोमवार या बुधवार को पडने से यह जयंती योग माना जाता है और अत्यंत शुभ एवं पुण्यकारी होता है। इस योग में भगवान कृष्ण के बाल रूप की पूजा एवं व्रत करने से तीन जन्मों के पापों से मुक्ति मिलेगी। उन्होंने बताया कि रोहिणी नक्षत्र‚ अष्टमी तिथि के साथ सूर्य और चन्द्रमा ग्रह उच्च राशि में है।
ज्योतिष शास्त्र में रोहिणी को उदार‚ मधुर‚ मनमोहक और शुभ नक्षत्र माना जाता है। रोहिणी शब्द विकास‚ प्रगति का सूचक है। जिस प्रकार के योग में भगवान श्रीकृष्ण का द्वापर युग में प्राकट हुआ था‚ वैसे योग में इस वर्ष जन्माष्टमी मनाई जा रही है। पाठः गोपाल सहस्त्रनाम‚ विष्णु सहस्त्रनाम, मंत्रः श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी‚ हे नाथ नारायण वासुदेव, ध्यानः नमो भगवते वासुदेवाय नमः
जन्माष्टमी पर भगवान श्रीकृष्ण की पूजा का विशेष महत्व है। विष्णुजी के दशावतारों में से आठवें और चौबीस अवतारों में से बाईसवें अवतार श्रीकृष्ण के जन्म का जश्न मनाता है। भगवान श्रीकृष्ण को 16 कलाओं का स्वामी माना गया है। इस दिन भगवान व्रत कर विधि पूर्वक पूजा करना चाहिए। तभी पूर्ण लाभ की प्राप्त होती है।
ये 16 कलाएं कौन-कौन सी हैं।
1-श्रीधन संपदा- यह पहली कला है और धन संपदा का अर्थ यहां सिर्फ धन से ही नहीं है।धनी उसे कहा गया है कि जो कि मन, वचन, और कर्म से धनी हो। श्रीकृष्ण न सिर्फ भौतिक रूप से बल्कि आत्मिक रूप से भी धनवान थे।
2-भू संपदा- इसका अर्थ है कि व्यक्ति के पास एक बड़ा भूभाग हो, जिस पर वह शासन करने की क्षमता रखता हो। भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारका नगरी को बसाया था।
3-कीर्ति- इसका अर्थ है कि जिसके मान-सम्मान और यश की कीर्ति से चारों दिशाओं में गूंजती हो जिसके प्रति लोग श्रद्धा भाव रखते हों।
4- वाणी सम्मोहन- भगवान श्री कृष्ण में यह कला भी मौजद है, पुराणों में भगवान श्रीकृष्ण के बारे में उल्लेख मिलता है कि श्री कृष्ण की वाणी सुनकर क्रोधी व्यक्ति भी अपना सुध-बुध खोकर शांत हो जाता था।
5- लीला- यह कला जिसमें होती उस व्यक्ति का दर्शन कर आनंद का अनुभव होता है।इनकी लीला कथाओं को सुनकर भौतिकवादी व्यक्ति भी विरक्त होने लगता है।
6- कांति- इसे सौदर्य और आभा भी कहा जाता है. इसका अर्थ होता है कि वह व्यक्ति जिसके रूप को देखकर मन स्वत: ही आकर्षित होकर प्रसन्न हो जाता है। कृष्ण की इस कला के कारण पूरा व्रज मंडल कृष्ण को मोहिनी छवि को देखकर हर्षित होता था।
7- विद्या- भगवान श्री कृष्ण में यह कला भी थी, वह कृष्ण वेद, वेदांग के साथ ही युद्घ और संगीत-कला में पारंगत थे। इसके साथ ही राजनीति और कूटनीति में भी वे माहिर थे।
8- विमला- वह व्यक्ति जिसके मन में छल-कपट नहीं हो। जो सभी व्यक्तियों के प्रति एक सा व्यवहार करे जिसके दिल में कोई द्वेष न हो।
9- उत्कर्षिणि- इसका अर्थ प्रेरणा और नियोजन है. यानि वह व्यक्ति जिसमें दूसरे को प्रेरित करने की क्षमता हो। जो लोगों को अपनी मंजिल पाने के लिए प्रेरित कर सके।
10- ज्ञान- ये दसवीं कला है।इस अर्थ नीर क्षीर विवेक सा ज्ञान रखने वाला व्यक्ति जो अपने ज्ञान से न्यायोचित फैसले लेता हो।भगवान श्री कृष्ण ने जीवन में कई बार विवेक का परिचय देते हुए समाज को नई दिशा प्रदान की।
11- क्रिया- भगवान श्री कृष्ण इस कला में भी निपुण थे। जिनकी इच्छा मात्र से दुनिया का हर काम हो सकता है वह कृष्ण सामान्य मनुष्य की तरह कर्म करते हैं और लोगों को कर्म की प्रेरणा देते हैं।
12- योग- ऐसा व्यक्ति जिसने अपने मन को आत्मा में लीन कर लिया है। भगवान श्रीकृष्ण में यह गुण समाहित था।
13- विनय- इसका अर्थ है विनयशीलता यानि जिसे अहंकार का भाव छूता भी न हो। जिसके पास चाहे कितना ही ज्ञान हो, चाहे वह कितना भी धनवान हो, बलवान हो मगर अहंकार दूर दूर तक न हो।
14- सत्य- श्री कृष्ण कटु सत्य बोलने से भी परहेज नहीं रखते और धर्म की रक्षा के लिए सत्य को परिभाषित करना भी जानते थे, यह कला सिर्फ श्री कृष्ण में है।
15- इसना- यानि आधिपत्य। इस कला का अर्थ है कि व्यक्ति में उस गुण का मौजूद होना जिससे वह लोगों पर अपना प्रभाव स्थापित कर पाता है। जरूरत पड़ने पर लोगों को अपने प्रभाव को एहसास दिलाता है।
16- अनुग्रह- यानि उपकार। इसका अर्थ है कि बिना प्रत्युकार की भावना से लोगों का उपकार करना। भगवान श्रीकृष्ण इस कला का बाखूबी उपयोग करते थे।
कृष्ण जी भगवान विष्णु जी के अवतार हैं, जो तीन लोक के तीन गुणों सतगुण, रजगुण तथा तमोगुण में से सतगुण विभाग के प्रभारी हैं। भगवान का अवतार होने की वजह से कृष्ण जी में जन्म से ही सिद्धियां मौजूद थीं।