हमारे देश में राष्ट्रध्वज के अपमान के मामले अक्सर देखे जाते हैं। राष्ट्रध्वज का अपमान करने में किसी को अपवाद नहीं माना जा सकता है। अनपढ़ एवं पढ़े–लिखे दोनों ऐसा कर रहे हैं‚ जबकि राष्ट्रध्वज फहराने के कायदे–कानून हैं‚ जिनका अनुपालन आवश्यक है। राष्ट्रीय ध्वज से जुड़े दिशा–निर्देश बेहद कड़े हैं और तिरंगे के रखरखाव में हुई छोटी से गलती को भी अपराध माना गया है‚ जिसके लिए जुर्माना या जेल या फिर दोनों का प्रावधान है॥। राष्ट्रध्वज को फहराने का अधिकार नागरिकों के मूलभूत अधिकार और अभिव्यक्ति के अधिकार का एक हिस्सा है। यह अधिकार संसद द्वारा कुछ खास परिस्थितियों में बाधित किया जा सकता है। ये प्रावधान संविधान की कण्डिका २अनुच्छेद १९ में उल्लेखित किए गए हैं। इस खण्डपीठ में यह भी कहा गया है कि नागरिकों के द्वारा राष्ट्रध्वज का सम्मान किया जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायलय के २२ सितम्बर‚ १९९५ के निर्णय के अनुसार भी भारत का हर नागरिक राष्ट्रीय ध्वज के ध्वजारोहण के लिए स्वतंत्र है‚ लेकिन किसी भी नागरिक को राष्ट्रीय ध्वज का अपमान करने का अधिकार नहीं है। अपने ४५ सालों की यात्रा में हमारा राष्ट्रीय ध्वज कई बदलावों के दौर से गुजरा है। पहली बार‚ राष्ट्रीयध्वज को ७ अगस्त १९०६ को पारसी बागान चौक (ग्रीन पार्क) कलकत्ता में फहराया गया‚ जिसे लाल‚ पीला और हरे रंग की क्षैतिज पट्टियों से बनाया गया था। सबसे ऊपरी नीली पट्टी में आठ सितारे बने थे‚ जिसमें कमल का खिलता हुआ फूल अंकित था। बीच की पीली पट्टी में देवनागरी लिपि में वंदे मातरम लिखा हुआ था। प्रत्येक छोर पर सूर्य और सितारा तथा एक छोटा सा अर्धचंद्र पीले रंग की पट्टी पर अंकित था। ॥ दूसरी बार‚ पेरिस में मैडम कामा द्वारा राष्ट्रीय ध्वज फहराया गया। पुनश्चः मैडम कामा और कुछ क्रांतिकारियों ने १९०७ में इसे फहराया‚ जो पहले वाले झंडे के लगभग समान था। इसमें एक ही अंतर था। इसकी सबसे ऊपर की पट्टी पर केवल एक कमल अंकित था‚ लेकिन सात तारों की आकृति सप्तऋषि के प्रतीक के रूप में बने थे। इस झंडे को बर्लिन में हुए समाजवादी सम्मेेलन में भी प्रदर्शित किया गया था। १९२१ में बेजवाड़ा (अब विजयवाड़ा) में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने एक सम्मेलन का आयोजन किया‚ जहां आंध्र प्रदेश के एक युवक ने झंडा बनाकर महात्मा गांधी को दिया‚ जो दो रंगा लाल और हरे रंगों में रंगा था। लाल रंग हिंदू समुदाय का प्रतीक था और हरा रंग मुस्लिम समुदाय का। गांधी जी ने सुझाव दिया कि दूसरे बचे हुए समुदायों के प्रतीक के रूप में इसमें एक सफेद पट्टी और राष्ट्र की प्रगति को इंगित करने के लिए एक चलते हुए चरखे का समावेश किया जाए। इससे इसकी सार्थकता बढ़ जायेगी। तदुपरांत‚१९३१ में पिंगाली वेंकैय्या ने एक नया झंडा बनाया‚ जिसके बीच में चरखा बना हुआ था। वर्ष १९३१ में ही तिरंगा को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाने के लिए प्रस्ताव पारित किया गया था‚ लेकिन कांग्रेस समिति ने इसे मंजूरी नहीं दी। इस साल अपनाए गए झंडे में केसरिया‚ सफेद और मध्य में चरखा बना हुआ था‚ जिसे मौजूदा राष्ट्रीय ध्वज का मिलता–जुलता स्वरूप देश को आजादी मिलने के बाद राष्ट्रीय ध्वज में चरखे की जगह मौर्य सम्राट अशोक के कालखंड में बने अशोक स्तंभ में अंकित धर्म चक्र का समावेश किया गया।
भारतीय राष्ट्रीय ध्वज में तीन रंगों की क्षैतिज पट्टियां समानुपात आकार में बनी हुई हैं। सबसे ऊपर केसरिया‚ बीच में सफेद ओर नीचे गहरे हरे रंग की है। सफेद पट्टी के मध्य में गहरे नीले रंग का एक चक्र है। यह चक्र अशोक स्तंभ‚ जो सारनाथ में स्थित है से लिया हुआ है। इसमें २४ तीलियां है। १८ जुलाई‚ १९४७ को हमारे तिरंगा को एक मानक रूप प्रदान किया गया और २२ जुलाई १९४७ को संविधान सभा ने इस तिरंगे को स्वीकार किया था और २६ जनवरी १९५० को इसे राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अंगीकार किया गया। राष्ट्रीय ध्वज की ऊपरी पट्टी में केसरिया रंग है‚ जो देश की शक्ति और साहस को दर्शाता है। बीच की पट्टी का श्वेत रंग शांति और सत्य का प्रतीक है। निचली हरी पट्टी उर्वरता और वृद्धि का सूचक है। सफेद पट्टी पर बने चक्र को धर्म चक्र कहते हैं‚ जो जीवन की गतिशीलता‚ देश की प्रगति और न्यायको प्रतीकात्मक रूप में बताता है।
ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड्स (बीआईएस) ने झंडे के निर्माण के लिए कुछ मानक तय किए हैं। इस मानक में कपड़े के प्रयोग‚ डाई का इस्तेमाल‚ रंग‚ धागे‚ फहराने के तौर–तरीके आदि के संबंध में बरती जानी वाली सावधानियों का जिक्र किया गया है। उदाहरण के तौर पर तिरंगा को सिर्फ खादी के कपड़ों से बनाया जाना चाहिए। इसके निर्माण में डाई‚ रंग और धागों का प्रयोग किया जाता है। झंडा बनाने के लिए दो तरह की खादी का प्रयोग किया जाता है। एक प्रकार की खादी से कपड़ा बनाया जाता है और दूसरी प्रकार की खादी से टाट बनाया जाता है। बीआईएस ने १९५१ में पहली बार राष्ट्रीय ध्वज के लिए दिशा–निर्देश तय किए थे‚ जिसे १९६४ में संशोधित किया गया। १७ अगस्त १९६८ में इसे पुनः संशोधित किया गया। वर्ष २००२ में ध्वज संहिता में पुनः संशोधन किया गया। तत्पश्चात भारतीय नागरिक अपने घरों‚ कार्यालयों और अन्य स्थानों पर राष्ट्रीय दिवस एवं आम दिवसों में राष्ट्रीय ध्वज फहराने के लिए स्वतंत्र हो गए‚ लेकिन संहिता में साफ तौर पर चेताया गया है कि इससे जुड़े दिशा–निर्देशों का अक्षरश पालन करना जरूरी है। बेंगलुरू से लगभग ५५० किमी दूर स्थित बगालकोट जिले के खादी ग्रामोद्योग और धारवाड़ के निकट गदग में तिरंगा के कपड़े को काता और बुना जाता है। केवल खादी या हाथ से काता गया कपड़ा ही झंडे के लिए उपयुक्त माना जाता है। यह कपास‚ रेशम और ऊन से बना होता है। तिरंगे को तीन अलग–अलग रंगों में डाई किया जाता है। डाई किए हुए कपड़े बेंगलुरू से ४२० किमी दूर हुबली भेजा जाता है‚ जहां इन्हें झंडे के आकार के मुताबिक अगल–अलग आकारों में काटा जाता है। कपड़े को हुबली में सिला जाता है। हुबली स्थित कर्नाटक खादी ग्रामोद्योग को राष्ट्रीय ध्वज के निर्माण और आपूर्ति का लाइसेंस मिला है। राष्ट्रीय ध्वज को सिर्फ एक ध्वज की संज्ञा नहीं दी जा सकती है। वस्तुतः यह देश की स्वतंत्रता‚ स्वाभिमान‚ आकांक्षा और आदर्श का प्रतीक है। अगर हम इसका सम्मान नहीं करेंगे तो दूसरे देश के लोगों से किसी भी प्रकार की अपेक्षा करना बेमानी होगा।