निरज चोपड़़ा ने जेवेलिन थ्रो (भाला फेंक) में स्वर्ण पदक जीतकर सारा देश को भावनाओं में बहा दिया। नीरज के इस प्रयास की जितनी भी तारीफ की जाए‚ कम है। उन्होंने फिनलैंड़ में तैयारी करके टोक्यो आने पर समय के अंतर से हो रहीं दिक्कतों को दरकिनार करके अपना सर्वश्रेष्ठ देने पर फोकस बनाए रखा और ८७.५८ मीटर की थ्रो से देश का सिर उचा कर दिया। प्रधानमंत्री से लेकर सारी जनता इस प्रदर्शन से अभिभूत हो गई। एथलेटिक्स को ओलंपिक खेलों की जान माना जाता है और इसमें ही हम पदक से दूरी बनाए हुए थे। वैसे तो भारत के नाम इस खेल में दो पदक दर्ज हैं‚ जिन्हें नॉर्मन प्रिचार्ड़ ने १९०० के ओलंपिक में जीता था। पर वह अंग्रेज थे और ओलंपिक में ब्रिटिश इंडि़या के नाम से उतरे थे। पर सही मायनों में भारतीय खिलाडि़यों में मिल्खा सिंह और पीटी ऊषा ही दो ऐसे एथलीट हैं‚ जो ओलंपिक पदक के सबसे करीब पहुंचे हैं। यह दोनों ही अपनी गलतियों से चौथे स्थान पर रहे थे। मिल्खा सिंह तो ता जिंदगी किसी भारतीय एथलीट के ओलंपिक पदक जीतने की बाट जोहते रहे पर उनके जाने के कुछ ही माह बाद भारत सफलता पाने में सफल हो गया है। नीरज चोपड़़ा ने अपना पदक मिल्खा सिंह को समर्पित किया है। यह सही है कि नीरज के कॅरियर को इस मुकाम तक पहुंचाने में भारतीय सुविधाओं के बजाय उनकी विदेश में की गइ तैयारियों का ज्यादा योगदान है। यह सही है कि आजकल देश में सरकार खिलाडि़यों को तैयारी करने के लिए भरपूर सहायता देने लगी है। लेकिन फिर भी हमारा ढांचा ऐसा नहीं है कि हम नीरज चोपड़़ा जैसे खिलाडि़यों की लंबी फेहरिस्त तैयार कर सकें। इससे १३ साल पहले बीजिंग ओलंपिक में अभिनव बिंद्रा के स्वर्ण पदक जीतने पर भी सारा देश इसी तरह खुश हुआ था। यह खुशी क्षणिक होती है और फिर देशवासी भूल जाते हैं। टोक्यो ओलंपिक खेलों में अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने से देश में बने माहौल को अब एक ऐसी शक्ल देने का समय आ गया है कि देश में नीरज जैसी तमाम प्रतिभाएं सामने आ जाएं। हम टोक्यो में किए प्रदर्शन का सही विश्लेषण करें तो पता चलता है कि हम सफलता का टैग पाने से ज्यादा दूर नहीं हैं। इसके लिए भारतीय खिलाडि़़यों की तैयारियों को थोड़़ा और बेहतर बनाने की जरूरत है। हम यदि सही ढंग से योजना बनाने में सफल रहे तो तीन साल बाद पेरिस में होने वाले ओलंपिक में जरूर दो अंकों में पदक लेकर लौट सकेंगे॥।
राजनीति समाज के बदलाव का माध्यम रही है………….
राजनीति समाज के बदलाव का माध्यम रही है। अफसोस की बात है कि समय के साथ इसकी यह धार कुंद...