पिछले पखवाड़़े भर से भारत की राजनीति में सबसे चर्चित विषय पेगासस जासूसी कांड है। पावस सत्र आरंभ होते ही संसद के दोनों सदनों में इस मामले की गूंज उठी और मामला अभी थमा नहीं है। कई कारणों से कमजोर दिखने वाला विपक्ष इस मुद्दे के मिलते ही सशक्त नजर आने लगा है। १९८७ में राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में जब बोफोर्स मामला आया था‚ तब इसी तरह विपक्ष को एकबारगी ताकत मिल गई थी। उस मुद्दे को लेकर ही राजनीति केंद्रित होती चली गई और अंततः राजीव गांधी की सरकार अगले चुनाव में बुरी तरह पिट गई। पेगासस ग्रीक पौराणिकता का एक देवता है‚ जो है तो घोडा‚ लेकिन पक्षियों की तरह आकाश में उड़ सकता है। हिंदू पौराणिकता में जिस तरह हनुमान में उड़ने की क्षमता थी‚ कुछ वैसा ही चमत्कारी है पेगासस। इजरायल की साइबर सुरक्षा कंपनी एनएसओ ने अपने स्पाईवेयर का नामकरण इसी पौराणिक देवता के नाम पर किया है। इसका इस्तेमाल जासूसी के लिए किया जाता है। यह किसी के मोबाइल फोन में बिना धारक की अनुमति के फिट कर किया जा सकता है‚ और उसके बाद उसकी वार्ता‚ गतिविधियों और उसके दूसरे सीक्रेट को यह कंपनी जान सकती है। कहा जाता है कि किसी के फोन पर एक मिस्ड कॉल देकर भी उस व्यक्ति के फोन में इसे चस्पां किया जा सकता है। इसके बाद उस व्यक्ति की सारी बातचीत और दूसरी जानकारियां प्राप्त की जा सकती हैं।
वाशिंगटन पोस्ट और लंदन गार्डियन जैसे अखबारों ने इन खबरों को प्रमुखता से जारी किया कि इजरायल की पेगासस कंपनी भारत के मंत्रियों‚ विरोधी दल के नेता राहुल गांधी‚ दर्जनों पत्रकारों और जजों तक की खुफियागिरी इस स्पाईवेयर के माध्यम से कर रही है। पेगासस कंपनी कभी अपनी सेवा प्राइवेट लोगों को नहीं देती। इसकी सेवा किसी देश की वैध सरकारें ही हासिल कर सकती हैं। इसलिए इस खबर के फैलते ही यह स्पष्ट हो गया कि मौजूदा केंद्र सरकार ने यह सब किया है। ॥ भारत का संविधान व्यक्ति की निजता और उसके अभिव्यक्ति के अधिकार की गारंटी करता है। इस परिप्रेक्षय में मोदी सरकार द्वारा किया गया यह काम पहली नजर में ही न केवल अनैतिक‚ बल्कि कानून विरोधी भी है। कुछ यही कारण रहा कि पावस सत्र के शुरू होते ही इस कांड़ की गूंज संसद के दोनों सदनों में उठी। सरकार जांच और चर्चा की मांग से लगातार भाग रही है। कल क्या होगा कोई नहीं जानता। लेकिन इस मुद्दे को लेकर सरकार की मुश्किलें बढ़ती ही जा रही हैं। भाजपा सरकार के सभी कारनामों का चुपचाप समर्थन करने वाले नीतीश कुमार तक ने इस विषय पर चर्चा की मांग का समर्थन किया है। इसे हम आग में घी डालने जैसा कह सकते हैं। आम तौर पर सधी टिप्पणी करने वाले नीतीश ने बिना सोचे–समझे टिप्पणी की होगी‚ इसे मानना मूर्खता होगी। इस पूरे वाकये से यही पता चलता है कि इसे लेकर एनडीए के भीतर भी सब कुछ ठीक नहीं है।
कुछ ऐसा ही जासूसी कांड़ १९७० के दशक के आरंभ में अमेरिका में हुआ था। तब वहां रिपब्लिकन पार्टी के रिचर्ड़ निक्सन राष्ट्रपति थे। उन्होंने डेमोक्रेटिक पार्टी के दफ्तर वाटरगेट होटल कॉम्प्लेक्स में विपक्षी नेताओं के फोन टेप करवाए थे। यह संयोग ही है कि वाटरगेट कांड़ की खबर भी वाशिंगटन पोस्ट ने ही प्रकाशित की थी‚ जिसने पेगासस की खबर प्रकाशित की है। अमेरिका में लोकतांत्रिक मर्यादा इतनी थी कि निक्सन को १९७३ में अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था। अमेरिकी के इतिहास में वह पहले राष्ट्रपति थे‚ जिन्होंने एक जुर्म में अपने पद से इस्तीफा दिया था।
भारत के बोफोर्स कांड और अमेरिका के वाटरगेट कांड से इस पेगासस की तुलना इसलिए की जा रही है क्योंकि दोनों ने अपने मुल्कों की राजनीति को गहरे प्रभावित किया। क्या भारत की मोदी सरकार भी इससे प्रभावित होने जा रही हैॽ कल नीतीश कुमार की इस मामले पर टिप्पणी कुछ ऐसा ही संकेत दे रही है। कुछ रोज पूर्व अपने दिल्ली प्रवास के बीच नीतीश ने हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला से मुलाकात की। खबर यह भी आई कि एक तीसरे फ्रंट की बात हुई है। यह फ्रंट कांग्रेस और भाजपा से अलग होगा। उसके पूर्व महाराष्ट्र के शरद पवार की सक्रियता भी प्रकट हुई थी। पुराने समाजवादियों का यादव कुनबा भी अपनी तरह सक्रिय है। बंगाल की मुख्यमंत्री की सक्रियता तो सबसे ऊपर है। चुनावी राजनीति की सांख्यिकी जानने वाले प्रशांत किशोर की भाग–दौड़ भी जारी है। ऐसे माहौल में पेगासस मामले ने निश्चित तौर पर उत्प्रेरक का काम किया है। आने वाले समय में यह मामला विपक्षी दलों को एक मंच पर लाने का माध्यम बनेगा‚ ऐसी उम्मीद है।
लेकिन इस उम्मीद के बीच से कुछ सवाल भी उठते हैं। ऊपर जिन सक्रिय नेताओं की चर्चा हुई है‚ उनमें से अधिकांश थके–मांदे और हत–हाल दिखते हैं। ये चौटाला या शरद यादव या फिर शरद पवार से मिलने–नहीं मिलने का कोई राजनीतिक प्रभाव होगा‚ इसमें संदेह है। नीतीश पेगासस मामले पर टिप्पणी करते हैं और उसी के आसपास उनके एक राजनीतिक सहयोगी जीतनराम मांझी उन्हें पीएम मैटीरियल बता कर उनकी इच्छा–आकांक्षाओं को सार्वजनिक कर देते हैं। राजनीति में योग्यता अथवा कुव्वत का दावा नहीं किया जाता। सक्षम राजनेता अपनी होशियारी से गोल कर जाता है। पीएम मैटीरियल का साइन बोर्ड लगा कर राजनीति करने का कोई अर्थ नहीं होता। जीतनराम मांझी मुख्यमंत्री रह चुके हैं। उनके बढ़ते प्रभाव से भयभीत नीतीश कुमार ने उन्हें बेआबरू कर के पद से हटाया था। इस नाजुक मौके पर जीतनराम द्वारा की गई यह टिप्पणी क्या नीतीश को मुश्किलों में डालने वाली हो सकती हैॽ एक म्यान में दो तलवारें नहीं होतीं। एक राजनीतिक फ्रंट में यदि दूसरा पीएम मैटीरयल है‚ तो इसका मतलब है कि कुनबे में कलह का आरंभ हो गया है। नीतीश बहुत दिन उस कुनबे में रह पाएंगे‚ इसमें संदेह है। यह ठीक है कि उनका तीसरा फ्रंट येन केन अस्तित्व में भी आ जाए किंतु आज जिस तरह उनका दल एनडीए का हिस्सा बन गया है‚ उससे अंततः किसका नुकसान होगा‚ कोई भी समझ सकता है।