बिहार में जाति आधारित जनगणना मुद्दा जोर पकड़ रहा है. इसके समर्थन में जहां सीएम नीतीश कुमार , तेजस्वी यादव , जीतन राम मांझी सरीखे नेता पहले से रहे हैं, अब मुकेश सहनी के साथ बीजेपी के संजय पासवान जैसे नेता भी जातिगत जनगणना के सपोर्ट में उतर आए हैं. यह अब इसलिए भी महत्वपूर्ण होता जा रहा है क्योंकि हाल में ही 20 जुलाई को संसद में केंद्र सरकार ने जातिगत जनगणना से इंकार कर दिया था. दरअसल जातीय जनगणना का मुद्दा लंबे समय से मन राजनीति करने वालों के लिए संवेदनशील मुद्दा रहा है, लेकिन पिछली यूपीए सरकार रही हो या मोदी की सरकार, दोनों इस पर हाथ बचाए रखना चाह रहे हैं. हालांकि बिहार के संदर्भ में अब कहा जाने लगा है की मौजूदा राजनीति के दो ध्रुव मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव की मुलाकात के सियासी मायने भी हैं. सियासी गलियारों में सवाल पूछे जा रहे हैं कि क्या यह मुलाकात मंडल पार्ट 2 की राजनीति की सुगबुगाहट है? क्या लालू-नीतीश के साथ आने के भी संकेत हैं?
दरअसल बिहार में जातिगत जनगणना का दांव लंबे समय से चला जा रहा है. बीते 24 जुलाई को सीएम नीतीश ने यह कहा था कि हमारा मानना है कि जातिगत जनगणना होनी चाहिए. इस मुद्दे पर उनकी तेजस्वी यादव से भी मुलाकात हो चुकी है और दोनों में इस पर सहमति भी बन चुकी है. गौरतलब है कि इससे पहले बिहार विधानमंडल 18 फरवरी 2019 और बिहार विधानसभा में 27 फरवरी 2020 को सर्वसम्मति से इस आशय का प्रस्ताव भी पारित किया था और इसे केंद्र सरकार को भेजा गया था. केंद्र से अपील की गई थी कि इस मुद्दे पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए.
जातीय जनगणना का इतिहास
बता दें कि देश में पहली बार 1931 में जाति आधारित जनगणना की गई थी, लेकिन 1941 में द्वितीय विश्वयुद्ध के छिड़ने की वजह से जातीय जनगणना नहीं कराई गई. 1947 में देश आजाद होने के बाद 1951 में तत्कालीन सरकार के पास भी जातीय जनगणना कराने का प्रस्ताव आया था, पर तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने यह कहकर उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था. तब तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने कहा था कि, जातीय जनगणना कराए जाने से देश का सामाजिक ताना-बाना बिगड़ सकता है. केंद्र यही दलील देकर अब तक जातिगत जनगणना की मांग खारिज करती रही है.
हक की आवाज बुलंद करने की राजनीति
दूसरी ओर हाल में ही केंद्र सरकार ने मेडिकल एजुकेशन में 27% ओबीसी आरक्षण व 10% आर्थिक पिछड़ों को आरक्षण देकर एक नया दांव चला है. जानकार बताते हैं कि मेडिकल अंडर ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन एडमिशन में 27% ओबीसी और 10% आर्थिक कमजोर छात्रों का आरक्षण की मंजूरी देने का फायदा तो महज 5500 छात्रों को होगा, लेकिन इसका संदेश पूरे ओबीसी समुदाय को जा रहा है कि केंद्र की मोदी सरकार ओबीसी के हक में आवाज बुलंद करने वाली सरकार है. राजनीति के जानकार बताते हैं कि हाल में ओबीसी समुदाय का समर्थन भाजपा के लिए बहुत बढ़ गया है ऐसे में नीतीश व तेजस्वी जैसे नेताओं के लिए सत्ता-समीकरण को साधे रखने में मुश्किल हो रही है.
दलित-पिछड़ों के हिमायती दिखने की सियासत
राजनीति के जानकार कहते हैं कि अब जब जातिगत जनगणना के मुद्दे पर बिहार के दलित व पिछड़े वर्ग के अधिकतर नेता एक मंच पर आते दिख रहे हैं तो केंद्र की सरकार भी इसपर लचीला रुख अपना सकती है. वहीं, लालू प्रसाद यादव के जमानत पर बाहर निकलने के बाद से यह पहला मौका है जब नीतीश कुमार व तेजस्वी यादव किसी मुद्दे पर एकमत हुए हैं. ऐसे में माना जा रहा है कि बिहार में तेजस्वी और नीतीश भले ही एक साथ सरकार में न हों, लेकिन दोनों ही अपने इस वोट बैंक को स्पष्ट संदेश देना चाहते हैं कि दलित व पिछड़े वर्ग के लिए सबसे बड़े हिमायती वही हैं.
क्या मोड़ लेगा जातीय जनगणना का मुद्दा?
जाहिर है कहने को तो यह जातिगत जनगणना आरक्षण को लेकर जातियों को वास्तविक न्याय दिलाने का पहला कदम है, लेकिन इससे ओबीसी आरक्षण की नई राजनीति का रास्ता खुल रहा है. दरअसल इस बहाने ओबीसी समुदाय को अपनी ओर लाने के लिए यह न सिर्फ नीतीश-लालू बल्कि बीजेपी का भी एक बड़ा दांव माना जा रहा है. साफ है कि लड़ाई वोट बैंक की है और सत्ता समीकरण की भी. अब जब नीतीश, तेजस्वी, मांझी, सहनी व संजय पासवान जैसे सभी दलों के दलित व पिछड़े नेता जातिगत जनगणना करवाना चाहते हैं ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि बिहार में जातीय जनगणना का मुद्दा अब क्या मोड़ लेता है?