बिहार के मुंगेर से सांसद ललन सिंह जेडीयू के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष होंगे. ललन सिंह को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाना नीतीश कुमार की मजबूरी हो गई थी. महीने की शुरुआत में जब तत्कालीन अध्यक्ष आरसीपी सिंह मंत्री बन गए तब बात निकलकर आई कि नीतीश कुमार को अंधेरे में रखकर फैसला लिया गया. बात कहां से और कैसे उड़ी ये रहस्य का विषय है. लेकिन इस खबर ने नीतीश कुमार की कोर टीम को परेशान कर दिया. नीतीश की कोर टीम के लोगों को एक दूसरे पर संदेह करने का मौका मिल गया.
2019 में नीतीश कुमार जब पार्टी के अध्यक्ष थे तब उन्होंने केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने से मना कर दिया था. उस वक्त वो आरसीपी सिंह और ललन सिंह दोनों के लिए कुर्सी चाह रहे थे. जब डील नहीं हो पाई तब उन्होंने सरकार में शामिल होने से ऐन मौके पर मना किया. अब जब विस्तार हुआ तो चर्चा चली कि दो या तीन मंत्रियों को जेडीयू कोटे से जगह मिल सकती है. लेकिन जगह मिली जेडीयू कोटे से आरसीपी और लोजपा के पशुपति पारस को.
जेडीयू कोटे से मंत्री बनने की उड़ी खबर
ललन सिंह जिनका मंत्री बनना तय लग रहा था उनका पत्ता आरसीपी सिंह ने काट दिया. बाद में आरसीपी कैंप ने खबर उड़ाई कि पारस भी जेडीयू कोटे से मंत्री बने हैं.
इस खबर के बाद से नीतीश की कोर टीम में भरोसे का संकट खड़ा हो गया. ललन सिंह जो कि नीतीश कुमार की राजनीति के रणनीतिकार माने जाते हैं उनकी नाराजगी सार्वजनिक रूप से सामने आई. उन्होंने कई अहम बैठकों में आना बंद कर दिया. नीतीश पर ये बड़ा दबाव पड़ा. कहा जाता है कि जेडीयू को कुछ महीनों से आरसीपी सिंह ने हाईजैक कर लिया था.
अब नीतीश की राजनीतिक मजबूरी ये है कि पार्टी की छवि सिर्फ लव कुश यानी कुर्मी कोइरी की पार्टी बनकर रह गई है. सीएम कुर्मी, केंद्र में मंत्री कुर्मी, संसदीय बोर्ड कोइरी, प्रदेश अध्यक्ष कोइरी… हां ये सही है कि पार्टी है भी सिर्फ लव कुश की ही लेकिन सिर्फ इसी लव कुश के दम पर बिहार की राजनीति नहीं की जा सकती. ये बात नीतीश कुमार अच्छी तरह जानते हैं. बिहार के जानकार बताते हैं कि राज्य में कुर्मी 5 और कोइरी 6 फीसदी के आसपास हैं.
कुर्मी का बड़ा वर्ग नीतीश को नेता मानता है लेकिन कोइरी का बड़ा वर्ग नीतीश को नेता नहीं मानता. कोइरी में आधार मजबूत करने की जरूरत नीतीश कुमार को विधानसभा चुनाव के बाद महसूस हुई तो उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी का विलय कराया. उमेश कुशवाहा को प्रदेश अध्यक्ष बनाया. पार्टी में दूसरी जाति के नेता और विरोधी पार्टी को कुर्मी कोइरी की पार्टी कहने लगे. ये एक दबाव सीएम नीतीश पर पहले से था.
इसके बाद बीजेपी की रणनीति में फंस चुके आरसीपी सिंह के चक्रव्यूह से पार्टी को निकालने के लिए नीतीश कुमार ने अपनी रणनीति बनाई. ललन सिंह को तैयार किया. मंत्री न बनने की टीस लेकर बैठे ललन मान गए और नीतीश ने एक ललन से कई शिकार किए. जमीनी पकड़ न होते हुए भी ललन सिंह नीतीश के रणनीतिकार माने जाते हैं. चाहे लालू से गठबंधन तोड़कर 2017 में बीजेपी के साथ जाना हो या फिर चिराग पासवान को अलग कर लोजपा को तोड़ना हो.
बीजेपी से अलग होने के बाद 2013 में ललन सिंह ने आरजेडी के 13 विधायकों को तोड़कर नीतीश को बहुमत दिला दिया था. जीतन राम मांझी को जब सीएम की कुर्सी से हटाना था तब नीतीश कुमार ने ललन सिंह को ही आगे किया था. ललन सिंह को जीतन राम मांझी ने बर्खास्त किया और मांझी की कुर्सी चली गई थी. ललन सिंह जिस भूमिहार बिरादरी से आते है वो भूमिहार 2013 से पीएम मोदी के लिए खड़ा है. बीजेपी का सबसे ताकतवर वोटर बन चुका है. लेकिन विधानसभा चुनाव नतीजे के बाद जिस तरह से भूमिहारों को बीजेपी ने हाशिए पर डाला, उसका जमीनी फायदा अब नीतीश कुमार ललन सिंह के जरिए लेने की कोशिश करेंगे.
नीतीश कुमार ने समता राजनीति की शुरुआत कुर्मी कोइरी से की, बाद में इसमें भूमिहार को शामिल किया. फिर अति पिछड़ा और फिर महादलित. इसी समीकरण ने नीतीश को सत्ता के शीर्ष पर पहुंचाया था. लेकिन कोइरी और भूमिहारों के हाथ कमजोर करने से नीतीश कमजोर हुए. नीतीश ने ललन के जरिए बीजेपी, आरसीपी और संगठन तीनों की घेराबंदी की है.
ललन सिंह का इतिहास
ललन सिंह शुरुआती दिनों में समता पार्टी के कोषाध्यक्ष रहे, बाद में जब पार्टी जेडीयू हुआ तो प्रदेश अध्यक्ष बने. 2004 में बेगूसराय से पहली बार सांसद बने. 2005 में जब जेडीयू को पहली बार सत्ता मिली तो ललन सिंह प्रदेश अध्यक्ष थे. 2014 में हारे तो बिहार में मंत्री बने. 2019 में मुंगेर से सांसद बने. चारा घोटाले के खुलासे में इनका रोल रहा. साल 1994 में ललन सिंह से ही लालू यादव का दिल्ली के बिहार निवास में झगड़ा हुआ था. जिसके बाद जनता दल टूटा था और समता पार्टी बनी थी.
ललन सिंह को लालू परिवार पसंद नहीं करता तो एक अनुमान आप ये भी लेकर चल सकते हैं कि नीतीश शायद उधर वापस न जाएं. वैसे ऐसा कुछ कभी होता है तो ललन नीतीश के साथ ही जाएंगे. ललन सिंह एक बार 2010 के बिहार चुनाव से पहले पार्टी छोड़ गए थे. तब इन्होंने नीतीश कुमार के पेट में कहां-कहां दांत है वाला चर्चित बयान दिया था. हालांकि दो साल दूर रहने के बाद ललन लौटकर आ गए थे. ललन और नीतीश का राजनीतिक रिश्ता तीन दशक पुराना है.
कहने वाले तो ये भी कह रहे हैं कि मंत्री न बनाए जाने के बाद ललन सिंह की नाराजगी उन्हें किसी भी कदम उठाने को मजबूर कर सकती थी. लिहाजा समय रहते नीतीश कुमार ने चीजों को संभाला.