बिहार में पिछले 15 सालों में ब्यूरोक्रेट्स को काम करने की जितनी आजादी मिली, शायद ही इससे पहले उन्हें मिली हो और काम नहीं करने पर सज़ा भी मिली. कहा जाता है डीएम हों या पुलिस महकमे का अफसर सबमें सीएम नीतीश के सामने खुद को बेस्ट दिखाने की होड़ मची रहती है
बिहार सरकार के मंत्री मदन सहनी के इस्तीफे की पेशकश से मंत्री और विभागीय सचिव के बीच टकराव के मुद्दे ने राज्य में सियासी पारा बढ़ा दिया है. ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हुआ है. केन्द्र और राज्य दोनों जगह मंत्री और सचिव के बीच टकराव की खबरें आती रहती है. आखिर टकराव की वजह क्या है? ऐसा तभी होता है जब दोनों पक्ष अपनी लक्ष्मण रेखा को लांघते हैं और अनावश्यक रुप से एक दूसरे पर हावी होने की कोशिश करते हैं. संसदीय शासन-व्यवस्था में राजनीतिक कार्यपालिका और स्थायी कार्यपालिका के बीच समन्वय बेहद आवश्यक है, तभी प्रशासनिक व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहेगी.
मंत्रियों और विधायकों की आम शिकायत रही है कि विभागीय अधिकारी उनकी सुनते नहीं है. मदन सहनी का भी यही आरोप है कि विभागीय सचिव मनमानी करते हैं और उनके निर्देशों का पालन नहीं करते हैं. मदन सहनी के इस्तीफे की पेशकश के बाद सत्ता पक्ष और विपक्ष के कई विधायकों ने भी कहना शुरु कर दिया कि अधिकारी विधायकों को नजरअंदाज करते हैं. बीजेपी विधायक अरुण शंकर प्रसाद के अनुसार अधिकारी अहंकारी हो गये हैं वही जेडीयू विधायक डॉ संजीव कुमार का कहना है कि कई अधिकारी विधायकों और मंत्रियों की बात नहीं सुनते हैं लेकिन नीतीश सरकार ऐसे अधिकारियों पर कार्रवाई भी करती है. वन एवं पर्यावरण मंत्री नीरज सिंह बबलू ने भी कहा कि जनप्रतिनिधियों के सम्मान में कटौती नहीं होनी चाहिेए. मंत्री जनक राम के अनुसार जनप्रतिनिधियों की कम सुनी जाती है और अधिकारियों की ज्यादा चलती है. इस मुद्दे को विपक्ष ने लपक लिया और कहा कि हम तो पहले से ही कहते आ रहे हैं कि बिहार में नौकरशाही बेलगाम हो गयी है. विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने कहा कि सरकार में ना मंत्रियों की और ना ही विधायकों की चल रही है, अफसरशाही पूरे तौर पर हावी है.
प्रशासन में राजनीतिक हस्तक्षेप मोटे तौर पर दो रूपों में दिखती हैं पहला, नियमों के साथ छेड़खानी और दूसरा, महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियों और स्थानांतरणों आदि में संरक्षण. ये आम धारणा है कि ट्रांसफर पोस्टिंग में जिस अधिकारी की पहुंच है उसी को महत्वपूर्ण या यूं कहें कि मलाईदार पद मिलता है. जिन अधिकारी की पहुंच नहीं है या जो नियमों के पालन पर बल देते हैं उन्हें दूरदराज के क्षेत्रों या गैर महत्वपूर्ण पदों पर भेज दिया जाता है. मंत्री हो या विधायक वे चाहते हैं कि उनके क्षेत्र में अपना भरोसेमंद अधिकारी हों जिससे अपने क्षेत्र में पकड़ बनी रहे. जनप्रतिनिधियों का कहना है कि उन्हें अपने क्षेत्र में जनता के सवालों का जवाब देना होता है. काम नहीं होने पर जनता उन्हें ही कटघरे में खड़ा करती है. एक हद तक उनकी मांग सही भी है लेकिन जब ये प्रशासन का राजनीतिकरण का रुप लेने लगती है तब समस्या उत्पन्न होने लगती है. अधिकारी भी अपने राजनीतिक आका को खुश करने के चक्कर में नियमों की अनदेखी करते हुए काम करने लगते हैं, ऐसे में नेता और अफसर का नापाक गठजोड़ सामने आने लगता है जो कई विकृतियों को जन्म देने लगता है.
मंत्री और सचिव के बीच आपसी विश्वास और समझदारी का होना आवश्यक है तभी विकास का काम तेजी से हो सकेगा लेकिन कई बार मंत्री और सचिव दोनों को अपनी भूमिका का पता ही नहीं होता है. मंत्री विभाग की छोटी-छोटी बातों में हस्तक्षेप करता है तो वहीं सचिव मंत्री के सामने आधे अधूरे प्रस्ताव पेश कर देता है या महत्वपूर्ण मुद्दों की जानकारी ही नही देता है, ऐसी स्थिति में विश्वास का माहौल ही नहीं बन पाता है. मंत्री की अज्ञानता भी सचिव को हावी होने का मौका दे देती है. जब मजबूत सरकार नहीं होती है तब सचिवों को मनमानी का अवसर मिल जाता है. मंत्री जब अपनी ही गद्दी बचाने में लगा हो तब विभाग पर पकड़ ढीली हो जाती है. मंत्रियों में यह दिखाने की प्रवृति होती है कि वो तो काम करना चाहते हैं लेकिन अधिकारियों के असहयोग के कारण काम नहीं कर पाते हैं. वहीं कुछ अधिकारियों में व्यक्तिगत तौर पर मंत्रियों और उनकी नीतियों की आलोचना करने की आदत होती है जब मंत्री को इसकी जानकारी मिलती है तब विवाद पैदा हो जाता है.
मंत्री और सचिव प्रशासन रूपी गाड़ी के दो पहिये के समान हैं. जिस प्रकार जब तक दोनों पहिये सही ढंग से नहीं चलते तब तक गाड़ी आगे नहीं बढ़ती उसी प्रकार मंत्री और सचिव के बीच आपसी भरोसा और सम्मान का भाव न हो तब तक विकासात्मक कार्यो की रफ्तार तेज नहीं हो सकती.इसलिए ये आवश्यक है कि मंत्री और सचिव आपसी भरोसे को कायम रखें और व्यक्तिगत हित को छोड़कर सार्वजनिक हित को अहमियत दें तभी सरकार अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में सफल हो सकेगी.
पूर्व में भी हो चुकी है ऐसी भिडंत ……………..
बिहार की नब्ज को समझने वाले इन तीन वरिष्ठ पत्रकारों की जुबानी लालू और नीतीश के कार्यकाल के दौरान के ये किस्से हैं. इन किस्सों के ज़रिए ब्यूरोक्रेट्स को हैंडल करने और उनसे काम करवाने को लेकर नीतीश और लालू के अलग-अलग अंदाज को आप समझ सकते हैं. लालू जब सीएम थे, तो ब्यूरोक्रेट्स को हमेशा खद्दरधारियों के फोन का डर रहता था. खद्दरधारियों की पैरवी को अफसर ना नहीं कर पाते थे और नौकरशाहों को उनके हर आदेश का पालन करना पड़ता था लेकिन नीतीश कुमार ने ना सिर्फ नौकरशाहों को खद्दरधारियों की हर पैरवी को मानने के दबाव से मुक्त किया, बल्कि नौकरशाहों में बेस्ट माइंड को बिहार के विकास का रोडमैप बनाने और उसे अमल में लाने के लिए खुली छूट दी.
इतना जरूर है कि पिछले 15 सालों में ब्यूरोक्रेट्स को काम करने की जितनी आजादी मिली, शायद ही इससे पहले उन्हें मिली हो और काम नहीं करने पर सज़ा भी मिली. इसीलिए बिहार में हर अफसर चाहे वो किसी विभाग का हो या जिले में पदस्थापित डीएम या पुलिस महकमे का अफसर सबमें सीएम नीतीश के सामने खुद को बेस्ट दिखाने की होड़ मची रहती है और शायद यही वजह है कि कहा जाता है कि विभागीय सचिव विभाग के मंत्री के बजाए सीधे सीएमओ को रिपोर्ट करते हैं और सीएमओ की भी हर विभाग पर सीधी नज़र रहती है. लेकिन यही बात सरकार में मंत्रियों को खटकती रहती है और मदन सहनी जैसे मंत्री के सब्र का बांध टूट जाता है और अपनी उपेक्षा का आरोप लगाकर इस्तीफे की पेशकश कर देते हैं लेकिन ये पहली बार नहीं है कि किसी मंत्री ने इस तरह की उपेक्षा का आरोप लगाया हो.
रामप्रीत पासवान, पीएचईडी मंत्री
इससे पहले नीतीश कैबिनेट के बीजेपी कोटे से पीएचईडी मंत्री रामप्रीत पासवान अफसरशाही का आरोप लगाया था. रामप्रीत पासवान ने कहा था कि अधिकारियों का कॉकस सक्रीय है. उन्हें इगो प्रॉब्लेम है, मंत्रियों का फोन नहीं उठाते, लगता है उन्हें समझ ही नहीं है कि अफसर बड़ा नहीं बल्कि मंत्री बड़ा होता है. उन्होंने कहा कि अफसरशाही से सुशासन की छवि पर बट्टा लगा है.
जीतनराम मांझी, पूर्व सीएम
अफसरशाही के आरोपों का समर्थन करते हुए पूर्व सीएम और एनडीए में सहयोगी जीतनराम मांझी ने भी कहा कि ‘यह सच है कि कई प्रशासनिक अधिकारी नेताओं की बात को प्रमुखता नहीं देते हैं’
जनक राम, खान एवं भूतत्व मंत्री
इससे पहले मंत्री जनक राम 2020 में मंत्रीमंडल के गठन के बाद उस समय गुस्सा हो गये थे जब विभाग का पदभार लेने के दौरान खान एवं भूतत्व विभाग की सचिव हरजीत कौर समेत कोई भी अधिकारी वहां उपस्थित नहीं था. सचिव का इंतजार करने के बाद मंत्री जनक राम ने अपने ही विभाग के चपरासी सतीश यादव से फूलों का गुलदस्ता स्वीकर किया था। तब उन्होने भी अफसरों की मनमानी को लेकर सीएम से भी शिकायत करने की बात कही थी.
श्याम रजक, पूर्व मंत्री और आरजेडी नेता
वहीं श्याम रजक जब जेडीयू छोड़कर आरजेडी में शामिल हो रहे थे। तब उन्होने भी कहा था कि ‘मंत्री के आदेशों की अवहेलना अधिकारी करते हैं’। ‘जब मंत्री के कार्यों के बंटवारे का अधिकार है तो फिर अधिकारी उस काम को कैसे कर सकते हैं’। श्याम रजक भी नीतीश सरकार में मंत्री रहे हैं।
तो सवाल है कि आखिर क्या वजह है कि विभागीय सचिवों को लेकर मंत्रियों की नाराज़गी है. क्या वाकई मंत्रियों की अफसर नहीं सुनते हैं, इसे लेकर जानकारों की अलग-अलग राय है. वरिष्ठ पत्रकार रवि उपाध्याय कहते हैं कि अफसरशाही हावी है और विभागीय सचिव सीधे सीएम को रिपोर्ट करते हैं और मंत्रियों को कोई जानकारी नहीं होती है. वरिष्ठ पत्रकार संतोष सिंह और संजय सिन्हा ये तो मानते हैं कि कुछ महत्वपूर्ण विभागों पर सीएम की सीधी नज़र रहती है, और सचिव से वो रिपोर्ट लेते हैं लेकिन मंत्रियों की उपेक्षा के आरोपों के पीछे उन्हें राजनीतिक चाल नज़र आती है. हो सकता है कि बिहार की मौजूदा स्थिति में इन आरोपों के पीछे कोई सियासी चाल भी हो लेकिन इतना जरूर है कि नीतीश के कार्यकाल में नौकरशाहों को काम करने की खुली छूट मिली है और खद्दरधारियों की हर पैरवी आसानी से नहीं मानी जाती है। अब इसे बिहार के लिए आप बेहतर कहें या खराब। लेकिन इतना तो जरूर है कि बिहार में विकास के कार्यों में तेजी आई है। काम करने की रफ्तार बढ़ी है। शायद यही वजह है कि तमाम आलोचनाओं के बावजूद नीतीश का भरोसा अधिकारियों पर बना रहता है।