प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के समर्थक और विरोधी दोनों इस समय अलग–अलग मुद्दे पर केंद्र सरकार के अधिकारों‚ कर्तव्यों तथा उसकी परिमिति को लेकर समान राय रख रहे हैं। समर्थक मानते हैं कि केंद्रीय सत्ता के पास इतने अधिकार और इतनी शक्तियां हैं कि कोई राज्य उनके अनुसार सही व्यवहार नहीं कर रहा है तो उसे राष्ट्रपति शासन लागू करने और केंद्रीय सैन्य पुलिस बलों को भेजकर सत्ता हाथ में लेने का अधिकार है। पश्चिम बंगाल में चुनाव के बाद जारी हिंसा के संदर्भ में जारी बहस तथा सोशल मीडिया पर आ रही असंख्य टिप्पणियों को देखें तो उनमें से ज्यादातर का यही मत है।
इसी आधार पर मोदी सरकार को निहायत ही कमजोर और लचर सरकार का विशेषण भी दे रहे हैं। इनके अनुसार ममता बनर्जी सरकार को सत्ताच्युत कर देना चाहिए था। वे प्रश्न उठाते हैं कि कोई राज्य कैसे सिर उठा सकता है और अगर उठाता है तो केंद्र चुपचाप बैठे क्यों रहेगाॽ वे पूछते हैं कि राष्ट्रपति शासन का प्रावधान क्यों हैॽ केंद्रीय पुलिस बल इनके हाथों क्यों हैॽ दूसरी ओर कोरोना प्रबंधन और स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर विरोधियों का पूरा हमला इसी पर है कि यह केवल केंद्र सरकार की विफलता है। चाहे हाहाकार जिन राज्यों में हो‚ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से लेकर जिला अस्पतालों‚ राज्य की राजधानियों के बड़े अस्पतालों और निजी अस्पतालों में जो भी दुर्व्यवस्थाएं हैं‚ कमियां हैं उन सबकी दोषी केंद्र सरकार है।
वे मानते हैं कि कोरोना संकट में स्वास्थ्य कुप्रबंधन के कारण मोदी सरकार को सत्ता में बने रहने का अधिकार नहीं है। देश के साथ विदेशों में भी स्वास्थ्य सेवाओं में स्पष्ट दिखते कुप्रबंधन को नरेन्द्र मोदी सरकार की बड़ी विफलता के रूप में प्रचारित किया गया है और जो माहौल है उसमें हमारे–आपके बीच का बड़ा तबका तत्काल इसे मान भी रहा है। भारतीय संविधान‚ केंद्र राज्य संबंधों एवं संघीय प्रकृति को समझने वाले जानते हैं कि दोनों पक्ष सही नहीं हैं। क्या बंगाल में चुनाव उपरांत भयावह हिंसा के आधार पर वहां राष्ट्रपति शासन लागू किया जाना चाहिए थाॽ मोदी और भाजपा समर्थक भूल रहे हैं कि संविधान में अनुच्छेद ३५६ जरूर है‚ लेकिन इसे सबसे अंतिम विकल्प के रूप में अपनाने का सुझाव भी है। बाबा साहब अंबेडकर ने स्वयं इसे ‘डेड लेटर’ यानी एक ‘मृत प्रावधान’ तक कहा था। अनुच्छेद ३५६ के प्रावधानों‚ इससे संबंधित संविधान सभा की बहस सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए फैसलों को देखें तो इसे लागू करने के मामले में केंद्र के हाथ काफी हद तक बंधे हुए हैं। उसे साबित करना होगा कि राज्य में संविधान के तहत शासन चलाना कतई संभव नहीं रह गया था। राष्ट्रपति शासन के किसी भी फैसले की न्यायिक समीक्षा का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के पास है। १९९४ के बोम्मई फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र की सीमा रेखा स्पष्ट कर दी थी। क्या मोदी समर्थक मानते हैं कि बंगाल में राष्ट्रपति शासन लागू हुआ तो सर्वोच्च न्यायालय इसे संविधान सम्मत मानेगाॽ नहीं माना और रद्द कर दिया तो नरेन्द्र मोदी और भाजपा की क्या स्थिति होगी‚ कल्पना की जा सकती है।
ज्यादातर मुद्दों पर मोदी सरकार का संसद में समर्थन करने वाली क्षेत्रीय पार्टियां इसका लोक सभा में भी विरोध करेगी। भविष्य में नरेन्द्र मोदी ऐसे संघवाद के समर्थक के रूप में स्वयं को पेश नहीं कर पाएंगे जो राज्यों के अधिकारों को संपूर्णता में स्वीकार करने का दावा करते हैं। जहां तक केंद्रीय सैन्य पुलिस बल का प्रश्न है तो उनकी भूमिका भी निर्धारित है। यह बात सही है कि समय–समय पर इनका उपयोग राज्यों में होता है‚ लेकिन ज्यादातर आतंकवाद–उग्रवाद विरोधी अभियानों में। राज्य इसकी मांग करते हैं और फिर केंद्र भेजने का फैसला करता है। भारत में यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि कोई केंद्र सरकार किसी राज्य में केंद्रीय सैन्य बलों को भेजकर सत्ता कब्जे में ले लेगा। यह सैन्य शासन या अधिनायकवादी सत्ता का चरित्र होगा। मोदी विरोधियों को भी याद दिलाना आवश्यक है कि हमारे संविधान की सातवीं अनुसूची में केंद्र और राज्य के विषयों का स्पष्ट विभाजन है‚ जिनमें संघ सूची‚ राज्य सूची तथा समवर्ती सूची शामिल है। स्वास्थ्य राज्यों की सूची में शामिल है। केंद्र में स्वास्थ्य मंत्रालय अवश्य है‚ लेकिन उसकी भूमिका हस्तक्षेप की नहीं‚ सहयोग व सलाह की है। राष्ट्रीय सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों में भी केंद्र सरकार योजना और अमल के तरीकों पर एक दिशा–निर्देश के साथ राज्यों को सहयोग करती है‚ मदद देती है। महामारी में केंद्र के अधिकार अवश्य विस्तृत होते हैं किंतु राज्यों के क्रियान्वयन में हस्तक्षेप की शक्तियां उसके पास नहीं हैं।
राज्यों के सरकारी व निजी अस्पतालों को या स्वास्थ्यकमयों को केंद्र सीधे आदेश देकर अपने अनुसार काम करने के लिए नहीं कह सकता है। केंद्रीय अस्पतालों‚ सेना व केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल के अस्पतालों‚ रेलवे अस्पतालों आदि तक ही केंद्र का नियंत्रण सीमित है। तो स्वास्थ्य व्यवस्था की लचरता के लिए राज्य सरकारें भी दोषी हैं। किसी भी केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को स्वास्थ्य सेवाओं को उत्कृष्ट बनाने से कभी रोका नहीं। इसलिए कोरोना की दूसरी लहर में जो हाहाकार मचा‚ स्वास्थ्य सेवाओं में जो भयावह कमजोरियां और कुव्यवस्थाएं दिखीं उनके लिए केंद्र और राज्य दोनों को दोषी मानना होगा। जो इसे केवल मोदी सरकार की विफलता मानते हैं क्या वे चाहेंगे कि सभी राज्यों के सारे अस्पताल व स्वास्थ्य ढांचें केंद्र के अधीन आ जाएंॽ क्या वे चाहेंगे कि ये स्वास्थ्य सेवाएं केंद्र सरकार के मातहत ही चलतीं रहेंॽ और क्या ऐसा करना भारत के संविधान के अनुकूल होगाॽ इन प्रश्नों का उत्तर बताने की आवश्यकता नहीं है।
अगर विरोधी मानते हैं कि बंगाल जैसे राज्य में सैन्य बल उतारना या राष्ट्रपति शासन लागू करना संघवाद के सिद्धांत एवं संविधान के विरुद्ध होगा तो उन्हें यह भी स्वीकार करना होगा कि स्वास्थ्य राज्यों का विषय है। मोदी समर्थक एवं विरोधी दोनों केंद्र सरकार की शक्तियों‚ उसके अधिकारों तथा दायित्वों को लेकर भारत की संवैधानिक और राजनीतिक संरचना की अनदेखी कर रहे हैं। मोदी विरोधियों को याद रखना चाहिए कि गलतफहमी फैलाकर कुछ समय सरकार के विरु द्ध वातावरण बनाया जा सकता है‚ लेकिन यह स्थाई भाव नहीं होगा। सबका हित इसमें है कि स्वास्थ्य सेवाएं दुरूस्त हों। यह केंद्र और राज्यों के सहयोग से ही संभव है। मोदी सरकार के विरुद्ध एकपक्षीय अभियान चलाने से तो यह मूल लक्ष्य दुष्प्रभावित होगा।