पिछले दिनों बिहार में बेकार पड़े एंबुलेंसों का मुद्दा काफी हाईलाइट हुआ. अभी भी कुछ नेशनल टीवी चैनलों की बहस में यह मुद्दा गरमाया हुआ है. यह मुद्दा पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा सांसद राजीव प्रताप रूडी के छपरा स्थित परिसर में बेकार पड़े 30 सरकारी एंबुलेंसों का था, जिन्हें उन्होंने 2019 में अपनी सांसद निधि से खरीदा था. जनाधिकार पार्टी के नेता राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव ने अचानक उनके परिसर में घुसकर इन एंबुलेंसों का वीडियो बना लिया और उसे सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया.
बाद में दोनों पक्षों की ओर से इस मुद्दे पर काफी आरोप-प्रत्यारोप हुए. रूडी का कहना था कि ड्राइवर के न होने की वजह से ये एंबुलेंस बेकार पड़े हैं, तो पप्पू यादव ने 40 ड्राइवरों को जुटाकर प्रेस कांफ्रेंस कर लिया और कहा कि वे ड्राइवर देने को तैयार हैं. पप्पू यादव ने यह आरोप भी लगाया कि रूडी ने खुद कौशल विकास केंद्र के जरिये छपरा में ड्राइवरों के प्रशिक्षण की शुरुआत की थी. रूडी ने इन आरोपों का खंडन कर दिया और उल्टे पप्पू यादव के खिलाफ मुकदमा भी दायर हो गया. इन राजनीतिक बहसों के बीच मुद्दे की बात कहीं गुम हो गयी.
रूड़ी ने क्यों नहीं की पहल
इन दिनों कोरोना के दूसरे लहर के भीषण के बीच जहां बिहार में ऑक्सीजन और बेड मिलना सामान्य मरीजों के लिए दुश्वार है, वहीं मरीजों को अस्पताल तक जाने के लिए एंबुलेंस नहीं मिल रहा. अगर मिलता भी है तो उनसे मनमाना किराया वसूल किया जा रहा है. राज्य में महज तीन किमी जाने के लिए 12 हजार रुपये तक लिये जाने की शिकायत राज्य सरकार को मिली थी. ऐसी संकट की स्थिति में 30-30 एंबुलेंस का खाली पड़ा रहना जघन्य अपराध है. एक सांसद, एक बड़े राजनेता होने के नाते आपदा की शुरुआत में ही राजीव प्रताप रूडी को इन एंबुलेंस के परिचालन की शुरुआत करनी चाहिए थी. वे शायद गंभीरता से कोशिश करते तो उन्हें भी ड्राइवर मिल ही जाते. मगर उन्होंने इस मसले को इग्नोर किया, यह उनकी सबसे बड़ी गलती रही.
यह बात निश्चित तौर पर उनकी जानकारी में रही होगी कि पिछले दस दिनों से बिहार में एंबुलेंस की कमी और अनाप-शनाप किराये को लेकर बवाल मचा हुआ है. स्थिति इतनी विस्फोटक हो गयी कि आखिरकार 6 मई को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को हस्तक्षेप करना पड़ा. सरकार ने एंबुलेंस परिचालन का अधिकतम किराया तय किया और स्वास्थ्य मंत्री को इसकी घोषणा करनी पड़ी. स्वास्थ्य विभाग और परिवहन विभाग की एक संयुक्त कमिटी बनी और उन्हें अधिक किराया लेने वाले एंबुलेंस चालकों पर कार्रवाई करने का अधिकार दिया गया. हालांकि अभी भी ऐसे मामले सामने आ ही जा रहे हैं, जिसमें इन नियमों की अवहेलना की जा रही है.
ऐसे में सवाल यह है कि क्या उस बहस के बीच रूडी खाली पड़े एंबुलेंसों के परिचालन के लिए प्रयास नहीं कर सकते थे. इस बीच उनका छह मई को लिखा गया एक पत्र जरूर सामने आया है, जिसमें उन्होंने जिला प्रशासन से ड्राइवरों की मांग की है. मगर विरोधी पक्ष का आरोप है कि यह पत्र बैक डेट में लिखा गया है और 7 मई को जब उनके परिसर में एंबुलेंस मिले तो मामले को रफा-दफा करने के लिए यह कदम उठाया गया.
कोरोना से जंग में एंबुलेंस की जरूरतबिहार में पिछले महीने के 10 अप्रैल से ही ऐसी स्थिति है. उचित तो यह था कि एक सांसद के तौर पर उन्हें उसी वक्त से एक्टिव होना था और सिस्टम बनाकर अपने इलाके के मरीजों की मदद करनी थी. अप्रैल में एक दफा ऐसा वक्त आया जब उनके क्षेत्र में सक्रिय मरीजों की संख्या 4000 के पार चली गई थी. लोग परेशान थे, सिर्फ एक सदर अस्पताल के भरोसे मरीजों का इलाज चल रहा था. लोग छोटी-मोटी शिकायत पर भी पटना की तरफ भागते थे. उस वक्त लोगों को एंबुलेंस की सख्त जरूरत थी. मगर तब भी वे कहीं सक्रिय नहीं थे.
पिछले एक-सवा महीने से जब सोशल मीडिया पर थोड़े से एक्टिव लोग भी एक-एक मरीज के लिए ऑक्सीजन, बेड और दवाएं जुटाने में दिन भर मेहनत कर रहे हैं. पूरे देश में ऐसे सैकड़ों समूह बन गए हैं, जो किसी आपातकालीन सिस्टम की तरह काम कर रहे हैं. एक सामानांतर नेटवर्क तैयार हो गया है, जो आपदा के वक्त विफल रही व्यवस्था को संभालने का काम कर रहा है. ऐसे वक्त में सांसदों और विधायकों की भूमिका तो काफी बड़ी हो सकती थी. उनके ऊंचे संपर्क होते हैं, हजारों समर्थक होते हैं. जो काम सोशल मीडिया के आम लोगों ने जान लड़ा कर किया, यह काम वे आसानी से कर सकते थे.
पीएम मोदी ने भी की थी अपील
खुद प्रधानमंत्री ने युवाओं से कमिटी बनाकर लोगों की मदद करने की अपील की थी. क्या यह अपील उनकी अपनी पार्टी के जनप्रतिनिधियों के लिए नहीं थी. जो काम जाप के पप्पू यादव या कांग्रेस के बीवी श्रीनिवास कर रहे हैं, क्या यह दूसरे नेता नहीं कर सकते. यह अनिच्छा, संवेदनहीनता और लापरवाही किसी भी राजनेता का सबसे बड़ा गुनाह है. इसमें बहस की गुंजाइश नहीं दिखती कि अगर रूडी चाहते तो इन एंबुलेंसों का परिचालन एक झटके में हो सकता था. अगर हारा हुआ नेता कुछ घंटों में 40 ड्राइवर जुटा सकता है, तो सत्ताधारी दल के सांसद के लिए तो यह चुटकियों का काम था. मगर उन्होंने पहले संवेदनहीनता दिखाई और अब कुतर्क कर रहे हैं. यह सवाल सिर्फ लापरवाह सिस्टम का है.
बिहार में अभी भी कई जिलों में ऐसे एंबुलेंस सिस्टम की संवेदनहीनता की वजह से बेकार पड़े हैं. दरभंगा और सहरसा से ऐसी तस्वीरें आई हैं. एक हजार से कुछ अधिक सरकारी एंबुलेंसों वाले राज्य बिहार में इतनी बड़ी संख्या में एंबुलेंसों का खड़ा रहना इस वक्त जघन्य अपराध है. अभी भी वक्त है रूडी इन एंबुलेंसों को संचालन योग्य बनाने में अपने स्तर पर मदद करें. यह इस घटना से क्षतिग्रस्त हुई उनकी छवि की भरपाई में मदद कर सकता है.