भद्रलोक के नाम से मशहूर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) लगातार तीसरी बार सरकार बनाने का दावा कर रही है और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सूबे में पहली मर्तबा ‘कमल’ खिलाने के लिए एड़ी–चोटी का जोर लगा रही है। वहीं वाम मोर्चा–कांग्रेस–इंडियन सेक्युलर फ्रंट (आईएसएफ) गठबंधन चुनावी लड़ाई को त्रिकोणीय बनाने में जुटा है। लेकिन टीएमसी को छोड़कर कर किसी भी अन्य राजनीतिक दल के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं है‚ जिसे वह चुनाव से पहले मुख्यमंत्री के उम्मीदवार अथवा दावेदार के तौर पर सामने ला सके। वर्ष २०११ में १९४ और २०१६ के विधानसभा चुनाव में २११ सीट पर विजय हासिल करने वाली टीएमसी डंके की चोट कह रही है कि ममता एक बार फिर सूबे की मुखिया यानी राज्य की मुख्यमंत्री बनेंगी लेकिन ठीक इससे उलट विपक्ष (कांग्रेस‚ वाम मोर्चा और भाजपा) के लिए यह बेहद अहम सवाल है–कौन बनेगा मुख्यमंत्री! पिछले विधानसभा चुनाव में महज ३ सीट ( एक फीसद से मामूली ज्यादा) जीतने वाली भाजपा इस दफा न केवल सरकार बनाने की बात कर रही है‚ बल्कि दो सौ प्लस का दावा भी कर रही है‚ जबकि अगले मुख्यमंत्री के सवाल पर उसके पास वही और एक ही घीसा–पीटा जवाब है–अगला मुख्यमंत्री बंग भूमि का ही होगा‚ लेकिन कौन होगाॽ इसके उत्तर में केसरिया खेमे के केंद्रीय नेताओं से लेकर राज्यस्तरीय नेता तक चुप्पी साध लेते हैं।
राजनीति के गलियारों के साथ–साथ आम जनता के बीच भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान सौरव गांगुली‚ रामकृष्ण मिशन के एक महाराज‚ राज्य सभा सदस्य रूपा गांगुली‚ टीएमसी को टाटा कह कर भाजपा में शामिल होने वाले राज्य के पूर्व परिवहन मंत्री शुभेंदु अधिकारी‚ प्रदेश भाजपा अध्यक्ष दिलीप घोष‚ त्रिपुरा और मेघालय के पूर्व राज्यपाल तथागत राय और स्वतंत्र पत्रकार–स्तंभकार एवं राज्य सभा सदस्य स्वप्न दासगुप्ता का नाम घूम रहा है‚ लेकिन ये सब हवाई बातें हैं‚ इनमें से किसी भी नाम पर भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने किसी प्रकार की मुहर नहीं लगाई है। लिहाजा‚ मतदाता हो या जनता‚ दोनों असमंजस में हैं कि राज्य में ‘कमल’ खिल भी गया तो उसे थामेगा कौनॽ
भाजपा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़ रही है‚ और सूबे के चुनाव को ममता बनाम मोदी बनाने में जुटी है‚ जबकि जगजाहिर है कि न तो मोदी बंगाल से लड़ने वाले हैं‚ ना ही अगले मुख्यमंत्री बनने वाले‚ ऐसे में भाजपा को बिना मुख्यमंत्री के चेहरे के ही चुनाव लड़ना पड़़ रहा है। इसका उसे कितना लाभ होगा या नुकसान‚ यह तो दो मई को होनी वाली मतगणना के बाद ही साफ होगा। जहां तक कांग्रेस की बात है‚ तो सोमेन मित्र का निधन हो चुका है। १९४५ में जन्मे प्रदीप भट्टाचार्य (राज्य सभा सदस्य) की उम्र हो चुकी है। अब्दुल मन्नान अल्पसंख्यक हैं। दीपा दासमुंशी लगभग किनारे हैं‚ इसलिए केवल अधीर रंजन चौधरी ही बचते हैं‚ उन्होंने खुद अपना नाम उछाला भी था‚ लेकिन किसी ने सहारा नहीं लगाया। लिहाजा‚ उन्हें ‘यू–टर्न‘ लेना पड़ा। हालांकि राज्य के अन्य नेताओं की तुलना में वे सोनिया गांधी व राहुल गांधी के अधिक विश्वसनीय हैं‚ तभी तो पहले उन्हें लोक सभा में कांग्रेस के नेता की जिम्मेदारी दी गई। उसके बाद एक व्यक्ति एक पद की युक्ति को दरकिनार करते हुए प. बंगाल प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष भी बना दिया गया। सच यह भी है कि मुख्यमंत्री के तौर पर चौधरी के नाम वाम मोर्चा और आईएसएफ तो क्या कांग्रेस के नेता ही नहीं सहमत हो पाएंगे।
वाम मोर्चा ने बंगाल में लगातार ३४ सालों तक शासन किया लेकिन २०११ में उसके हाथ से सत्ता चली गई और २०१६ में विपक्ष का दरजा भी। वाम मोर्चा के अर्श से फर्श पर पहुंचने की महत्वपूर्ण वजह रही युवाओं को जगह नहीं देना‚ महिलाओं को पर्याप्त भागीदारी से वंचित करना और पुरानी नीतियों में बदलाव नहीं करना। इस बीच‚ माकपा के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत‚ वाम मोर्चा के चेयरमैन अनिल विश्वास के निधन के बाद से वाम मोर्चा का पतन होता चला गया। आज जिस सूबे में उसने ३४ साल राज किया वहीं वह नेतृत्व के संकट से जूझ रहा है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि कम से कम मुख्यमंत्री के नाम पर टीएमसी क्षेत्रीय दलों के अलावा सूबे के प्रमुख्य विपक्षी दलों (कांग्रेस‚ वाम मोर्चा‚ भाजपा) पर भारी पड़ती दिख रही है। उसके पास ममता बनर्जी जैसा नाम है। देखने वाली बात होगी कि मुख्यमंत्री के चेहरे व ममता की जुझारू छवि के बलबूते टीएमसी जीत की हैट्रिक लगा पाती है या फिर विपक्ष द्वारा लगाए जा रहे भाई–भतीजावाद‚ तुष्टिकरण‚ भ्रष्टाचार जैसे आरोप से हार जाती है!