विचारों के मौजूदा अकाल के बीच यदि कोई समाजवादी भजन गुनगुनाता है‚ तब उस पर नजर रखना जरूरी हो जाता है। बिहार का सत्ताधारी दल जनतादल युनाइटेड (जद–यू) आजकल अपने कार्यकर्ताओं को समाजवादी पाठ पढ़ाने में जुटा है। पिछले दिनों इसके लिए पटना में एक शिविर का आयोजन हुआ और कुछ महानुभावों ने कार्यकर्ताओं को शिक्षित–दीक्षित किया। नीतीश कुमार उस शिविर में नहीं गए‚ लेकिन पूरा तामझाम उनके व्यक्तित्व को महिमामंडित करने के लिए ही किया गया था। शिविर से कुछ खास निकल कर नहीं आया‚ सिवा एक शब्द के। वह था व्यावहारिक समाजवाद। नीतीश को इसका प्रणेता बतलाने की कोशिश की गई। जद–यू को समाजवाद की याद तब आई‚ जब उसे पिछले विधानसभा चुनाव में जोर का झटका लगा। भाजपा की अपनी मजबूरियां थीं‚ इसलिए मुख्यमंत्री पद हासिल करने में नीतीश सफल जरूर हो गए‚ लेकिन उनकी साख राजनीतिक चर्चाओं के बीच बेहद कमजोर हो गई। वह वाकई परिस्थितियों के मुख्यमंत्री साबित हुए। आम तौर पर यह कहा जाने लगा कि परिस्थितिवश वह भाजपा की कृपा पर बने हुए हैं‚ अपनी ताकत के बूते नहीं।
राजनीति में दया की ऐसी स्थिति बहुत चिंताजनक होती है। शासन रुतबे से चलता है। जब रु तबा ही नहीं‚ तो शासन बेजान नजर आता है। इन स्थितियों में समाज की दुष्ट ताकतें और प्रवृत्तियां हावी होने लगती है। इन स्थितियों को दक्ष राजनेता नीतीश खूब अच्छी तरह समझते हैं। संभवतः उपरोक्त अपमानजनक स्थितियों से उबरने के लिए ही नीतीश कुमार की पार्टी ने अपनी राजनीतिक गतिविधियों में कुछ सक्रियता दिखलाई है। बसपा और एक निर्दलीय को अपने साथ करके दल ने एक संकेत दिया कि वह विस्तार की इच्छुक है। इस बीच कुछ दूसरे नेताओं को भी जोड़ने की चर्चा शुरू हुई। जाति समीकरणों की इंजीनियरिंग भी की गई‚ जिसे आजकल सोशल इंजीनियरिंग कहा जाने लगा है। संभवतः इसी क्रम में कुछ–कुछ मृत्युंजय–जाप की तरह यह समाजवादी राग भी छेड़ा गया जान पड़ता है। समाजवाद का राग–अलाप भारतीय जनता पार्टी ने भी अपनी स्थापना के समय किया था। जनता पार्टी के बिखराव के बाद संघ से जुड़े लोगों ने स्वयं को जनसंघ के नाम पर पुनः संघटित करने के बजाय भारतीय जनता पार्टी के नाम पर किया। ६ अप्रैल १९८० को उन लोगों ने इसी नाम से पार्टी बनाई। तब अटल बिहारी वाजपेयी पार्टी के दिग्गज नेता हुआ करते थे। उन्होंने गांधीवादी समाजवाद को इस नई पार्टी का लक्ष्य बताया‚ लेकिन जैसा कि सब जानते हैं‚ बहुत जल्दी ही पार्टी का लक्ष्य बदल गया‚ समाजवाद को किनारे कर भाजपा ने रामजन्मभूमि और हिंदुत्व की राजनीति को तेज किया और जल्दी ही यही उसकी विचारधारा बन गई। उसके बाद से आज तक की उसकी वैचारिक यात्रा सब के सामने है।
जनता दल अपने पूर्व रूप में समता पार्टी थी‚ जिसे एक समय लोहिया के वैचारिक शिष्य रहे जार्ज फर्नाडिंस पाल–पास रहे थे। १९९५ के आखिर में समता पार्टी और भाजपा में चुनावी राजनीतिक समझौता हुआ और तय किया गया कि भारतीय संविधान के धारा ३७०‚ सिविल कोड और रामजन्मभूमि के सवाल पर समता पार्टी की भाजपा से अलग राय है और इस पर वह दृढ़ है। इसलिए इन मुद्दों को नहीं उठाने की शर्त पर ही यह समझौता हुआ था। अटल जी ने अपने रहते इस समझौते का पालन किया। बिहार की राजनीति में भाजपा का इतना ही चाहना है कि नीतीश किसी भी स्थिति में लालू से कोई राजनीतिक समझौता नहीं करें। इन स्थितियों में नीतीश की पार्टी के इस समाजवादी जाप का क्या मतलब हैॽ समाजवादी जाप के बीच ही उसके एक प्रकार व्यावहारिक समाजवाद की व्याख्या का कोई निहितार्थ है क्याॽ पुराने जमाने से समाजवाद की मनमानी व्याख्याएं होती रही हैं। मार्क्स के जमाने के पहले भी किस्म–किस्म के समाजवाद थे। १९४८ के अपने ख्यात कम्युनिस्ट घोषणा–पत्र में स्वयं मार्क्स ने इन समाजवादों की व्याख्या की है।
प्रतिक्रियावादी समाजवाद और वैज्ञानिक समाजवाद इसके दो मुख्य विभेद हैं। सामंती समाजवाद‚ धार्मिक समाजवाद‚ जर्मन समाजवाद‚ राष्ट्रीय समाजवाद‚ दकियानूसी समाजवाद‚ पूंजीवादी समाजवाद जैसे कितने ही तरह के समाजवादी खयाल हैं‚ जो प्रतिक्रियावादी समाजवाद के तहत आते हैं। कार्ल मार्क्स ने इन सब को किनारे करते हुए वैज्ञानिक समाजवाद की प्रस्तावना की‚ जिसका वैचारिक आधार द्वंद्वात्मक भौतिकवाद सुनिश्चित किया। दुनिया भर के समाजवादियों ने मार्क्स के पहले के सभी समाजवादी व्याख्याओं को खारिज किया और वैज्ञानिक समाजवाद को रेखांकित किया। भारत में आचार्य नरेन्द्रदेव और जयप्रकाश नारायण समाजवाद के आदिप्रस्तावक रहे‚ जिन्होंने १९३४ में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। दोनों मार्क्सवादी थे। बाद में जयप्रकाश नारायण सघन आस्तिकता में खोने लगे थे‚ लेकिन समाजवाद के आर्थिक सिद्धांतों के प्रति उनका समर्थन बना रहा था। भारतीय राजनीति में समाजवाद की अनर्गल व्याख्याएं हुइ‚ लेकिन मानी हुई बात है कि कर्पूरी ठाकुर ही भारतीय राजनीति में समाजवाद के अंतिम प्रतिनिधि थे। उसके बाद समाजवादी जातिवादी बन गए और कोटा पॉलिटिक्स ही उनकी मूल विचारधारा रह गई। निजी पूंजी का खात्मा और उत्पादन के साधनों पर सामाजिक मिलकियत के ख्वाब से लोग दूर होते गए। ऐसे में व्यावहारिक समाजवाद की यह कसरत किसका हाथ मजबूत करने जा रही है‚ कोई भी समझ सकता है।
यह तथाकथित ‘व्यावहारिक समाजवाद’ हिटलर के राष्ट्रीय समाजवाद और मार्क्स के दकियानूसी समाजवाद के बीच की कोई अवधारणा प्रतीत होती है। हिटलर कहता था–कम्युनिस्ट बात करते हैं और हम काम। दरअसल‚ वह पहला व्यावहारिक समाजवादी था‚ लेकिन बिहार में इसका अर्थ कुछ अधिक गंभीर और गहरा है। ऐसा प्रतीत होता है कि जद–यू अपना अस्तित्व बचाने की आखिरी लड़ाई लड़ रहा है। इस व्यावहारिक समाजवाद की पगडंडियों के सहारे यह पार्टी एक रोज भाजपा के राजघराने तक पहुंचने और अंततः वहीं विलय होने वाली जान पड़ती है।