उत्तराखंड़ में 7 साल पहले हुई भयानक त्रासदी के बाद चमोली क्षेत्र में हुई त्रासदी चिंता तो पैदा करती है‚ लेकिन हैरानी पैदा नहीं करती। साल 2013 में लगभग 6 हजार लोग मौत के मुंह में समा गए थे तो इसका एक बहुत बड़़ा कारण मनुष्य द्वारा निर्मित वह विकास था जिसमें नदियों के तट पर तमाम पर्यावरणीय चिंताओं को दरकिनार करते हुए इस तरह के तमाम निर्माण कार्य कर लिये गए थे। यों तो उत्तराखंड़ में इस तरह की त्रासदी प्रायः होती रहती है। बादलों के फटने से भी अक्सर जान और माल की भयानक क्षति होती रहती है‚ लेकिन २०१३ की तबाही भीषण थी। उस त्रासदी के बाद कुछ समय तक लगातार विकास और पर्यावरण का भयावह असंतुलन विचार–विमर्श के केंद्र में रहा था‚ लेकिन किसी ने उस भीषण त्रासदी के बाद कुछ सीखा हो इसका कहीं कोई प्रमाण नहीं मिलता। ऐसे मौसम में जब ग्लेशियर जमे होते हैं और प्रायः नहीं टूटते तब चमोली क्षेत्र में ग्लेशियर क्यों टूटा इसका वास्तविक कारण तो समुचित अध्ययन के बाद ही पता चल सकेगा। फिर भी ग्लोबल वार्मिंग इसका एक अनिवार्य तत्व रही है। पयंरवरण से जुड़े़ वैज्ञानिक ऐसा ही मानते हैं‚ मगर जोशीमठ–चमोली की ऋषिगंगा हाइड्रो परियोजना के बारे में जो सर्वाधिक दुखद पहलू है वह यह है कि इस परियोजना को लेकर आसपास के लोग लगातार चिंता जता रहे थे। लोगों का कहना था कि परियोजना के अंतर्गत जिस तरह विस्फोट किए जा रहे हैं और खनन के लिए जिस तरह पर्यावरण का दोहन किया जा रहा है; वह समूचे क्षेत्र के लिए बहुत ही घातक होगा। यह मामला जब जनहिंत याचिका के द्वारा अदालत में ले जाया गया तो जिन अधिकारियों को जांच के निर्देश दिए गए थे उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखदिया था कि न तो पर्यावरण का विनाश किया जा रहा है और न ही परियोजना तथा आसपास के क्षेत्र के लिए कोई खतरा है। यह मामला आज भी अदालत में लंबित है। बार–बार दी गई उस चेतावनी को नजरअंदाज करने और भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था की भेंट चढ़ा देने का ही परिणाम है कि आज ऋषिगंगा हाइड्रो परियोजना जो पूरी तरह तबाह हो ही गई है। साथ में सैकड़़ों जान भी अपने साथ ले गई है। धौली गंगा किनारे एनटीपीसी की परियोजना भी पूरी तरह बर्बाद हो गई है। अपेक्षा यह की जानी चाहिए कि इस भीषण त्रासदी से ठोस सबक लिये जाएं और भविष्य को इस तरह की त्रासदियों से बचाया जाए। ऐसी चेतना भ्रष्ट और लापरवाह तंत्र के ऊपर कब हावी होगी‚ इसकी भविष्यवाणी कोई नहीं कर सकता।
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