भारतीय राजनीति में शुचिता‚ सादगी और समाजवाद के पर्याय जननायक कर्पूरी ठाकुर जन–जन के जेहन में जीवंत हैं। भले ही राजनीति की वर्तमान दशा को देखकर नई पीढ़ी सहजता से स्वीकार नहीं करे कि राजनीति में ऐसे भी जन नेता हो सकते हैं‚ लेकिन यह सच्चाई है‚ या यूं कहें कि राजनीति में भी संत हुए थे तो उन संतों में जननायक कर्पूरी ठाकुर का नाम लिया जाता है। बिहार राज्य के समस्तीपुर जिले के पितौंझिया में २४ जनवरी‚ १९२४ को जन्म लेने वाले कर्पूरी ठाकुर भारतीय राजनीति में ईमानदारी के एक उदाहारण बन गए। कर्पूरी जी के गांव को अब कर्पूरीग्राम कहा जाता है।
भारत के स्वतंत्रता सेनानी‚ शिक्षक‚ राजनीतिज्ञ तथा बिहार राज्य के दूसरे उपमुख्यमंत्री और दो बार मुख्यमंत्री रह चुके कर्पूरी ठाकुर की लोकप्रियता के कारण उन्हें जननायक कहा जाता था। कथनी और करनी‚ दोनों में वे समाजवादी थे। उनके पिता का नाम गोकुल ठाकुर तथा माता का नाम रामदुलारी देवी था। सरल‚ सहज‚ समरस और सरस ह्रदय के राजनेता माने जाने वाले सामाजिक रूप से पिछड़ी किंतु सेवाभाव के महान लक्ष्य को चरितार्थ करती नाई जाति में जन्म लेने वाले इस महानायक ने राजनीति को भी जन सेवा की भावना के साथ जिया। उनकी सेवा भावना के कारण ही उन्हें जननायक कहा जाता था। वह सदा गरीबों के अधिकार के लिए लड़ते रहे। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने पिछड़ों को २७ प्रतिशत आरक्षण दिया। उनका जीवन लोगों के लिए आदर्श से कम नहीं।
कर्पूरी ठाकुर दूरदर्शी होने के साथ–साथ ओजस्वी वक्ता भी थे। आजादी के समय पटना के कृष्णा टॉकीज हॉल में छात्रों की सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने एक क्रांतिकारी भाषण दिया कि हमारे देश की आबादी इतनी अधिक है कि केवल थूक फेंक देने से अंग्रेजी राज बह जाएगा। इस भाषण के कारण उन्हें दंड भी झेलना पड़ा थी। कर्पूरी का चिर परिचित नारा था.अधिकार चाहो तो लड़ना सीखो‚ पग–पग पर अड़ना सीखो‚ जीना है तो मरना सीखो। लोकनायक जयप्रकाश नारायण एवं समाजवादी चिंतक ड़ॉ. राम मनोहर लोहिया इनके राजनीतक गुरु थे। रामसेवक यादव एवं मधु लिमये जैसे दिग्गज साथी थे।
कर्पूरी ठाकुर बिहार में एक बार उपमुख्यमंत्री‚ दो बार मुख्यमंत्री और दशकों तक विधायक और विरोधी दल के नेता रहे। १९५२ की पहली विधानसभा में चुनाव जीतने के बाद बिहार विधानसभा का चुनाव कभी नहीं हारे। राजनीति में इतना लंबा सफर बिताने के बाद जब उनकी मृत्यु हुई तो अपने परिवार को विरासत में देने के लिए एक मकान तक उनके नाम नहीं था। ना तो पटना में‚ ना ही अपने पैतृक घर में वो एक इंच जमीन जोड़ पाए। जब करोड़ों रुपयों के घोटाले में आए दिन नेताओं के नाम उछल रहे हों‚ कर्पूरी जैसे नेता भी हुए‚ विश्वास ही नहीं होता। उनकी ईमानदारी के कई किस्से आज भी बिहार में आपको सुनने को मिलते हैं। उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता हेमवती नंदन बहुगुणा ने अपने संस्मरण में लिखा‚ ‘कर्पूरी ठाकुर की आर्थिक तंगी को देखते हुए देवीलाल ने पटना में अपने एक हरियाणवी मित्र से कहा था–कर्पूरी जी कभी आप से पांच–दस हजार रुपये मांगें तो आप उन्हें दे देना‚ वह मेरे ऊपर आपका कर्ज रहेगा। बाद में देवीलाल ने अपने मित्र से कई बार पूछा–भई कर्पूरी जी ने कुछ मांगा। हर बार मित्र का जवाब होता–नहीं साहब‚ वे तो कुछ मांगते ही नहीं’।
एक बार उपमुख्यमंत्री और दो–दो बार मुख्यमंत्री रहने के बावजूद कर्पूरी ठाकुर रिक्शे से ही चलते थे क्योंकि उनकी जायज आय कार खरीदने और उसका खर्च वहन करने की अनुमति नहीं देती थी। कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद हेमवंती नंदन बहुगुणा उनके गांव गए थे तो बहुगुणा जी कर्पूरी ठाकुर की पुश्तैनी झोपड़ी देख कर रो पड़े थे। स्वतंत्रता सेनानी कर्पूरी ठाकुर १९५२ से लगातार विधायक रहे‚ पर अपने लिए उन्होंने कहीं एक मकान तक नहीं बनवाया।
कर्पूरी जी का वाणी पर कठोर नियंत्रण था। वे भाषा के कुशल कारीगर थे। उनका भाषण आडंबर–रहित‚ ओजस्वी‚ उत्साहवर्धक तथा चिंतनपरक होता था। कड़वा से कड़वा सच बोलने के लिए वे इस तरह के शब्दों और वाक्यों को व्यवहार में लेते थे‚ जिन्हें सुन कर प्रतिपक्ष तिलमिला तो उठता था‚ लेकिन यह नहीं कह पाता था कि कर्पूरी जी ने उसे अपमानित किया है। उनकी आवाज बहुत ही खनकदार और चुनौतीपूर्ण होती थी‚ लेकिन यह उसी हद तक सत्य‚ संयम और संवेदना से भी भरपूर होती थी। विषम से विषम परिस्थितियों में भी शिष्टाचार और मर्यादा की लक्ष्मण रेखाओं का उन्होंने कभी भी उल्लंघन नहीं किया। सामान्य‚ सरल और सहज जीवनशैली के हिमायती कर्पूरी ठाकुर को प्रारंभ से ही सामाजिक और राजनीतिक अंतर्विरोध से जूझना पड़ा। ये अंतर्विरोध अनोखे थे और विघटनकारी भी। हुआ यह कि आजादी मिलने के साथ ही सत्ता पर कांग्रेस काबिज हो गई। बिहार में कांग्रेस पर खास तबके का कब्जा था। यह तबका सत्ता का अधिक से अधिक स्वाद चखने के लिए आपस में लड़ने लगा। कांग्रेस में पार्टी के बजाय जातियों के नाम पर वोट बैंक बनने लगे। सन १९५२ के प्रथम आम चुनाव के बाद कांग्रेस के भीतर की कुछ संख्या–बहुल पिछड़ी जातियों ने भी अलग से एक गुट बना डाला‚ जिसका नाम रखा गया ‘त्रिवेणी संघ’। अब यह संघ भी उस महानाटक में सम्मिलित हो गया। शीघ्र ही इसके बुरे नतीजे सामने आने लगे। संख्या बल‚ बाहुबल और धनबल की काली ताकतें राजनीति और समाज को नियंत्रित करने लगीं। राजनीतिक दलों का स्वरूप बदलने लगा। निष्ठावान कार्यकर्ता औंधे मुंह गिरने लगे।
कर्पूरी जी ने न केवल इस परिस्थिति का डटकर सामना किया‚ बल्कि इन प्रवृत्तियों का जमकर भंडाफोड़ भी किया। देश भर में कांग्रेस के भीतर और भी कई तरह की बुराइयां पैदा हो चुकी थीं‚ इसलिए उसे सत्ताच्युत करने के लिए सन १९६७ के आम चुनाव में डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में गैर–कांग्रेसवाद का नारा दिया गया। कांग्रेस पराजित हुई और बिहार में पहली बार गैर–कांग्रेसी सरकार बनी। सत्ता में आम लोगों और पिछड़ों की भागीदारी बढ़ी। कर्पूरी जी उस सरकार में उपमुख्यमंत्री बने। उनका कद उचा हो गया। उसे तब और उचाई मिली जब वे १९७७ में जनता पार्टी की विजय के बाद बिहार के मुख्यमंत्री बने। हुआ यह था कि १९७७ के चुनाव में पहली बार राजनीतिक सत्ता पर पिछड़ा वर्ग को निर्णायक बढ़त हासिल हुई थी। मगर प्रशासन–तंत्र पर उनका नियंत्रण नहीं था। इसलिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग जोर–शोर से की जाने लगी। कर्पूरी जी ने मुख्यमंत्री की हैसियत से उक्त मांग को संविधान सम्मत मानकर एक फॉर्मूला निर्धारित किया और काफी विचार–विमर्श के बाद उसे लागू भी कर दिया। इस पर पक्ष और विपक्ष में थोड़ा बहुत हो–हल्ला भी हुआ। अलग–अलग समूहों ने एक–दूसरे पर जातिवादी होने के आरोप भी लगाए। मगर कर्पूरी जी का व्यक्तित्व निरापद रहा। उनका कद और भी उचा हो गया। अपनी नीति और नीयत की वजह से वे सर्वसमाज के नेता बन गए। कुछ लिखाते समय ही कर्पूरी ठाकुर को नींद आ जाती थी‚ तो नींद टूटने के बाद वे ठीक उसी शब्द से वह बात लिखवाना शुरू करते थे‚ जो लिखवाने के ठीक पहले वे सोये थे।
वे राजनीति में कांग्रेस पार्टी की राजनीतिक चालों को भी समझते थे और अपने खेमे के अन्य नेताओं की महत्वाकांक्षाओं को भी। वे सरकार बनाने के लिए लचीला रुख अपना कर किसी भी दल से गठबंधन कर सरकार बना लेते थे‚ लेकिन अगर मन मुताबिक काम नहीं हुआ तो गठबंधन तोड़कर निकल भी जाते थे। भारतीय राजनीति के ऐसे अद्वितीय सितारे का अवसान ६४ साल की उम्र में १७ फरवरी‚ १९८८ को दिल का दौरा पड़ने से हुआ था। उनके निधन से बिहार ही नहीं‚ भारतीय राजनीति में जो शून्यता आई‚ उसकी भरपाई अभी तक नहीं हो पाई है। लेकिन आज के परिप्रेय में एक दुखद पहलू यह है कि कुछ लोग कर्पूरी जी को अपना आदर्श कहते भर ही हैं‚ करनी के समय में भ्रष्टाचार और परिवारवाद को अपना मूल काम बना लिया।