अपने मनोभावों पर बहुत काबू रखने वाले नीतीश कुमार की व्याकुलता अब उनकी जुबान पर आ जा रही है। पार्टी के प्रांतीय जलसे में उन्होंने कहा कि पिछले चुनाव में उन्हें लगा ही नहीं कि कौन दोस्त है‚ कौन दुश्मनॽ फिलहाल वह बिहार के मुख्यमंत्री हैं‚ और अपनी पार्टी जनता दल यूनाइटेड के सर्वमान्य नेता। नीतीश समाजवादी राजनीति की पैदाइश हैं। जेपी आंदोलन के वक्त से समाजवादी युवजन सभा और दूसरे समाजवादी अभियानों से जुड़े रहे। छात्र राजनीति के बाद १९८५ में पहली दफा बिहार विधानसभा के सदस्य बने। नीतीश पिछड़े वर्ग की उस जाति–जमात से आते हैं‚ जो बिहार में आम तौर पर समाजवादी राजनीति से अलग–थलग रही है। आरंभिक दो चुनाव में नीतीश इसलिए हारे कि अपनी जाति–जमात के मिजाज से अलग–थलग थे। कर्पूरी ठाकुर की मृत्यु के बाद बिहार की समाजवादी राजनीति नये लोगों के नेतृत्व में आई‚ तब लालू प्रसाद और नीतीश जैसे युवा हीरो की तरह उभरे। १९८९ के लोक सभा चुनाव में नीतीश ने बिहार के दिग्गज कांग्रेसी मगर जातिवादी माने जाने वाले रामलखन सिंह यादव को पराजित किया। केंद्र में वह कृषि राज्य मंत्री भी बने। १९९० में लालू बिहार के मुख्यमंत्री बने। लालू और नीतीश की जोड़ी बिहार की राजनीति की ऐसी विश्वसनीय जोड़ी थी‚ जिसने कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की खटिया खड़ी कर दी। १९८० से १९९० के बीच दस वर्षों तक बिहार में कांग्रेस की सरकार थी। इन दस वर्षों में पांच लोग मुख्यमंत्री हुए। पांचों तथाकथित उची जाति के। इससे पिछड़े–दलित तबकों में प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी। इसका लाभ लालू–नीतीश और समाजवादी विरासत वाली पार्टी जनता दल को मिलना स्वाभाविक था। लेकिन १९९४ में जनता दल में बड़ी टूट हो गई। पुराने समाजवादी जॉर्ज फनाडिस के नेतृत्व में चौदह सांसद पार्टी से अलग हो कर जनता दल जॉर्ज और अंततः समता पार्टी के नाम से जाने गए। नीतीश इनमें शामिल थे। लालू–नीतीश की युवा जोड़ी टूट गई थी। १९९५ में बिहार विधानसभा के चुनाव में लालू और नीतीश आमने–सामने हुए। नतीजा लालू के पक्ष में गया। उनकी पार्टी को बहुमत मिला। नीतीश सात सीटों पर सिमट गए। इस पराजय के बाद नीतीश ने भाजपा से मेलजोल बढ़ाया। १९९२ के बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद से भाजपा अछूत पार्टी बनी हुई थी। उसे नये दोस्तों की तलाश थी। १९९६ के लोक सभा चुनाव में दोनों मिल कर लड़े और बिहार की ५४ सीटों में से २४ सीटें जीत लीं। भाजपा को १८ सीटें मिलीं। इसके पहले वह केवल पांच सीटें जीत पाए थे।
१९९८ और १९९९ में भी भाजपा–समता को इसका फायदा मिला। २००० में हफ्ते भर के लिए नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री भी हुए। २००५ के आखिर में भाजपा के साथ नीतीश कायदे से बिहार के मुख्यमंत्री बने और २०१० में इन्हें पुनः सफलता मिली लेकिन २०१३ में भाजपा ने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किया‚ तब नीतीश पर समाजवादी बुखार एकबारगी चढ़ आया। उन्होंने भाजपा को सरकार से अलग कर दिया। लालू की पार्टी से दूरी बनाए रखने की रणनीति अपनाई। यह ऐसी नीति हुई कि २०१४ के लोक सभा चुनाव में नीतीश की पराजय हुई। लगभग १९९५ की ही तरह। इस दफा नीतीश भाजपा की तरफ नहीं मुड़े। धर्मनिरपेक्ष–समाजवादी दलों से एकता की कोशिश की और इसमें सफलता भी मिली। २०१५ के विधानसभा चुनाव में राजद–जदयू–कांग्रेस गठजोड़ ने भाजपा को पीट दिया। २४३ सीटों वाली असेंबली में भाजपा गठबंधन ५८ पर सिमट गया। विधायकों की संख्या के मामले में नीतीश का दल लालू से दूसरे नंबर पर था लेकिन लालू ने नीतीश को मुख्यमंत्री माना। नीतीश ने संघ और मोदी के विरोध में राष्ट्रीय स्तर पर मोर्चा खोल दिया। उनके संघमुक्त भारत के नारे के ईद–गिर्द राजनीतिक ध्रुवीकरण तेज होने लगा। लगा कि अब राजद और जदयू एकमेव हो जाएंगे जैसे पहले भी समाजवादी होते आए हैं। लेकिन अठारह महीने बाद नीतीश ने एक रोज अचानक फिर पलटी मारी और भाजपा की गोद में जा बैठे। आखिर क्या बात हुई कि नीतीश को अचानक से ऐसा फैसला लेना पड़ा। अब जा कर लगा कि नीतीश किसी दबाव में हैं। उनके मुख्यमंत्रित्व पर कोई आंच नहीं आ रही थी तो आखिर क्या हुआ कि उन्हें ऐसा फैसला लेना पड़ा। दरअसल‚ नीतीश की राजनीति का सामाजिक आधार पिछड़े वर्गों और उची जातियों के मिले–जुले हिस्से से बना है। पिछड़ी जातियों के लोग उनके चरित्र पर फिदा हैं‚ और उची जातियों के लोग उनकी चाल पर। लेकिन उनकी पार्टी में कलाबत्तू नेताओं की भरमार है‚ जो चरित्र के मामले में दोमुंहा हैं। समाजवादी दिखना चाहते हैं‚ लेकिन चुनौती नहीं लेना चाहते। अव्वल तो वहां गैर–राजनीतिक लोगों की भरमार है और जो थोड़े से राजनीतिक लोग हैं‚ उनमें समाजवादी पृष्ठभूमि के गिने–चुने लोग हैं। कुछ भाजपा के नुमाइंदे हैं। इन सब के स्वार्थ में कोई विचार नहीं‚ केवल सत्ता है और नीतीश इनके लिए सेतु या सीढ़ी से अधिक कुछ नहीं। यही नीतीश की मुसीबत है। आज उनकी पार्टी लगभग पूरी तरह भाजपा के अप्रत्यक्ष नियंत्रण में है। उनका नवनियुक्त राष्ट्रीय अध्यक्ष अपनी पार्टी से अधिक भाजपा के स्वार्थ की बात करता है। कश्मीर‚ अयोध्या और अल्पसंख्यकों के सवाल पर जदयू के विचार भाजपा से विलग थे। १९९६ के समझौते के अनुसार एनडीए इन सवालों को नहीं उठाने के लिए वचनबद्ध थी। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में जब तक एनडीए रहा तब से लेकर २०१३ में नीतीश के एनडीए छोड़ने के वक्त तक भाजपा इस नीति पर कायम रही। २०१४ में भाजपा को केंद्र में पूर्ण बहुमत मिल गया। अब किसी समाजवादी चरित्र वाले राजनीतिक दल का भाजपा के साथ रहने का कोई औचित्य नहीं था लेकिन २०१७ में नीतीश गए और अभी तक बने हुए हैं। उनके होते हुए कश्मीर‚ अयोध्या‚ अल्पसंख्यकों के सवाल कुचल दिए गए। नीतीश कुछ नहीं बोल सके। उनके दल के लोग भाजपा के गुणगान करते रहे।
२०२० विधानसभा चुनाव में नीतीश को झटका लगा। नीतीश और उनके कार्यकर्ताओं को लग रहा है कि भाजपा ने उनके साथ छल किया है। लेकिन अब कर क्या सकते हैं। उनकी पार्टी में भाजपा के एजेंट कदम–कदम पर भरे पड़े हैं। इन्होंने विद्रोह किया तो पार्टी दोफाड़ हो सकती है। अधिकतर कार्यकर्ताओं के दिल में अलबत्ता समाजवादी दीया अथवा मशाल अब भी भुकभुका रही है। उनके बल पर नीतीश कुछ करना चाहें तो कर सकते हैं। लेकिन इन सब के लिए साहस और वैचारिक प्रतिबद्धता की जरूरत होती है। उन से पूछा जा सकता है पार्टनर फिलहाल आपकी पॉलिटिक्स क्या हैॽ