नए कृषि कानूनों पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित कमेटी की पहली बैठक आज दिल्ली के पूसा कैंपस में होनेवाली है। इस बीच दिल्ली के बॉर्डर पर किसानों का धरना-प्रदर्शन जारी है। किसानों के आंदोलन का आज 55वां दिन है। वहीं किसान संगठनों और सरकार के बीच दसवें दौर की वार्ता अब 20 जनवरी यानी कल होगी। केंद्र ने कहा है कि दोनों पक्ष जल्द से जल्द गतिरोध सुलझाना चाहते हैं लेकिन अलग विचारधारा के लोगों की संलिप्तता की वजह से इसमें देरी हो रही है। सरकार ने यह दावा किया कि नये कृषि कानून किसानों के हित में हैं और कहा कि जब भी कोई अच्छा कदम उठाया जाता है तो इसमें अड़चनें आती हैं। सरकार ने कहा कि मामले को सुलझाने में देरी इसलिए हो रही है क्योंकि किसान नेता अपने हिसाब से समाधान चाहते हैं।
कृषि मंत्रालय के एक बयान में सोमवार को कहा गया, ‘‘विज्ञान भवन में किसान संगठनों के साथ सरकार के मंत्रियों की वार्ता 19 जनवरी के बजाए 20 जनवरी को दोपहर दो बजे होगी।’’ उच्चतम न्यायालय द्वारा इस मामले को सुलझाने के मकसद से गठित समिति भी मंगलवार को अपनी पहली बैठक करेगी। कृषि सचिव संजय अग्रवाल ने 40 किसान संगठनों को एक पत्र में कहा,‘‘प्रदर्शनकारी किसान संगठनों के साथ सरकार के मंत्रियों की वार्ता 19 जनवरी को होने वाली थी। अपरिहार्य कारणों से बैठक को टालना आवश्यक हो गया।’’ उन्होंने कहा, ‘‘अब बैठक विज्ञान भवन में 20 जनवरी को दोपहर दो बजे से होगी। आपसे बैठक में भागीदारी करने का आग्रह किया जाता है।’’
धारणा बदलना जरूरी
दसवें दौर की बातचीत के पहले तीन घटनाएं हुई है। एक‚ कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का बातचीत के संदर्भ में विस्तृत बयान आ गया है। दूसरे‚ राष्ट्रीय जांच एजेंसी या एनआईए ने ४० लोगों को सिख फॉर जस्टिस और खालिस्तान आंदोलन के समर्थन के संदर्भ में नोटिस भेजा है‚ जिनमें किसान संगठन चलाने वाले भी शामिल हैं और तीसरा‚ भूपिंदर सिंह मान ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त चार सदस्य समिति से इस्तीफा दे दिया है। निश्चित रूप से ये तीनों घटनाएं बातचीत को गहरे प्रभावित करने वाली तथा उसकी परिणति के बारे में संकेत देने वाली हैं।
वार्ता में शामिल संगठनों की ओर से कहा गया है कि सरकार से एनआईए की नोटिस के संबंध में भी बातचीत की जाएगी। इससे जिन लोगों की आंदोलनरत संगठनों और सरकार के बीच बातचीत में अभिरु चि खत्म हो गई थी वे भी सरकार के उत्तर के साथ किसान संगठन के नेताओं की बातचीत के बाद के बयानों की प्रतीक्षा करेंगे। सर्वोच्च न्यायालय की सुनवाई के दौरान जब महाधिवक्ता ने आंदोलन में खालिस्तानी और देश विरोधी संगठनों के संलिप्त होने की बात की तो मुख्य न्यायाधीश ने अलग से शपथ पत्र देने को कहा। यह भी देखना होगा कि शपथ पत्र दिया जाता है या नहीं और दिया जाता है तो उसमें क्या होता हैॽ कृषि कानून के संबंध में सरकार और आंदोलनरत संगठनों की बातचीत का नतीजा केवल इससे निकलेगा कानून में क्या गलत और क्या सही है इन पर फोकस हो। इस मायने में कृषि मंत्री का दिया गया बयान महत्वपूर्ण है कि कानून पूरे देश के लिए है और देश में इसका समर्थन है। उन्होंने यह भी कहा कि हम चाहेंगे कि कानून के एक–एक बिन्दू पर बातचीत हो। यानी उसमें किसान संगठनों को क्या गलत लगता है बताएं।
उन्होंने तीसरी बात यह कही कि सर्वोच्च न्यायालय ने कानूनों के अमल पर रोक लगा दिया है इसलिए आदेश के बाद कानून को लागू किया नहीं जा सकता। ऐसे में अब कानून को रद्द करने की मांग का कोई मतलब नहीं रह गया है। पिछली बातचीत में भी सरकार ने स्पष्ट किया था कि अगर कानून रद्द करने के अलावा कोई विकल्प है तो सामने लाएं उस पर हम चर्चा करने के लिए तैयार हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि मुख्य वार्ताकार मंत्री ने धीरे–धीरे सरकार का रुख बिल्कुल मुखर रूप से प्रकट किया है। सवाल यह है कि आंदोलनरत संगठन कहते हैं कि आप कानून रद्द करिए और सरकार कह रही है कि हम रद्द करेंगे नहीं.उनके प्रस्ताव के अनुसार ये कोई विकल्प लेकर जा नहीं रहे तो फिर ऐसे बातचीत का अर्थ क्या हैॽ पिछली बातचीत के बाद भी आंदोलनरत संगठनों के नेताओं ने यही कहा कि हमको मालूम है कि सरकार अभी आसानी से नहीं मानेगी‚ लेकिन बातचीत से अलग होने का कोई मतलब नहीं। हम बातचीत में जाएंगे। केवल बातचीत के लिए बातचीत करने का क्या मतलब है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अमल पर रोक के बाद इस समय कानून को कहीं जमीन पर नहीं उतारा जा सकता। कानून पर रोक या उसके अमल पर रोक का तात्कालिक रूप से व्यावहारिक परिणति एक ही है। सरकार की ओर से जिस तरह के सधे हुए और स्पष्ट बयान दिए जा रहे हैं उनका उद्देश्य समझना होगा। इसकी रणनीति साफ है।
इसमें देश को संदेश है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में एक मजबूत सरकार है जो एक बार फैसला करने के बाद उस पर कायम रहती है। दूसरा‚ किसान संगठनों के सामने बार–बार कहा गया कि कानून के एक–एक प्रावधान पर बात करिए और बताइए कि इसमें क्या गलती है‚ किन–किन से आपको समस्या है‚ जिनसे समस्या है उन पर पर बात करेंगे और जरूरत पड़ेगी तो उसका समाधान भी निकालेंगे। यानी वे बिना किसी आधार के आंदोलन के दबाव में कानून रदद् कराना चाहते हैं। तीसरा संदेश यह है कि सरकार सर्वोच्च न्यायालय की रोक और समिति का सम्मान कर रही है‚ लेकिन किसान संगठन उन पर उंगली उठा रहे हैं। यानी आंदोलनरत संगठन सर्वोच्च न्यायालय को भी नकार रहे हैं। कृषि मंत्री का ही पूर्व बयान है कि सर्वोच्च न्यायालय ने समिति गठित कर दी है और वह जब भी बुलाएगी सरकार उनके सामने अपना पक्ष रखेगी। इस प्रकार सरकार आम जनता के बीच अपना पक्ष मजबूत करने की रणनीति पर चल रही है। सीधी बात है। अगर देश के आम लोग यह समझते हैं कि सरकार बातचीत कर रही है‚ यह भी कह रही है कि कानून में कहां–कहां समस्या है वो बताइए हम उसमें संशोधन को तैयार हैं‚ सरकार सर्वोच्च न्यायालय को भी मानने को तैयार है‚ लेकिन किसान संगठन किसी के लिए तैयार नहीं हैं तो उनका समर्थन किसकी ओर होगाॽ जाहिर है‚ उनका समर्थन सरकार की ओर ही जाएगा।
भूपेंद्र सिंह मान ने इस्तीफे में केवल यह कहा कि वे हमेशा पंजाब और किसानों के साथ हैं और किसानों के हितों से कोई समझौता नहीं कर सकते। इससे यह स्पष्ट नहीं हुआ कि उन्होंने समिति से अपने को अलग क्यों कियाॽ पत्रकार वार्ता में उन्होंने कहा कि १२ जब को जब शीर्ष अदालत ने समिति बनाई तो नाम स्पष्ट नहीं थे‚ जबकि नाम सामने आ गए थे। दूसरे‚ उन्होंने कहा कि १३ जनवरी को हमने अपना फोन बंद रखा। सवाल है क्यों बंद रखाॽ उसके बाद उन्होंने मुख्य न्यायाधीश से बातचीत करके अपने अपने को समिति से अलग कर लिया।
किसान समन्वय समिति के कोर ग्रुप के एक सदस्य ने कहा कि उनको धमकी आ रही थी.उनके परिवार को कॉल किया जा रहा था जिससे उनको इस्तीफा देना पड़ा। उन्होंने जो भी बातें कीं उनसे संदेह गहरा होता है। अगर वे समिति में नहीं रहने की चाहत रखते तो १२ जनवरी को ही उन्होंने ऐसा कर दिया होता। सब जानते हैं कि उन्होंने कृषि कानूनों का समर्थन किया था। निश्चित रूप से कम–से–कम पंजाब में आंदोलनरत समूहों और उनके समर्थकों की भूमिका को लेकर संदेह का बादल गहराता है। संदेह यही है कि उनको और उनके परिवार को ट्रोल किया गया‚ धमकियां भी दी गइ होंगी। उनके फोन बंद करने का और क्या कारण हो सकता हैॽ समिति के दूसरे सदस्यों ने तो फोन बंद नहीं किया।
धीरे–धीरे संदेश जा रहा है कि आंदोलनरत संगठन सरकार द्वारा कानूनों के प्रावधानों पर बातचीत की तैयारी और सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बावजूद वे ट्रैक्टर रैली निकालने तथा कानून रद्द करने की मांग पर अड़कर हठधमता बरत रहे हैं। आंदोलनरत नेताओं को समझना चाहिए कि आखिर उनके बारे में ऐसी धारणा देश में क्यों बन रही हैॽ इस आंदोलन के पीछे राजनीतिक गैर राजनीतिक शक्तियों द्वारा नरेन्द्र मोदी सरकार को नीचा दिखाने की रणनीति का आरोप भी अब लोगों के गले उतरने लगा है। अगर धीरे–धीरे यह धारणा सशक्त हुई कि आंदोलनरत संगठनों का पक्ष कमजोर होगा एवं सरकार का आत्मवि·ाास बढ़ेगा।