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हिंसक भीड़ ताकत से जनमत को प्रभावित करना लोकतंत्र में कितना जायज है………..

UB India News by UB India News
January 9, 2021
in अन्तर्राष्ट्रीय, खास खबर, ब्लॉग
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हिंसक भीड़ ताकत से जनमत को प्रभावित करना लोकतंत्र में कितना जायज है………..

पिछले बुधवार को संयुक्त राज्य अमेरिका में वर्तमान‚ लेकिन अगले राष्ट्रपति पद के चुनाव में पराजित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के सैकड़ों हथियारबंद समर्थकों ने अमेरिकी संसद में घुस कर ऐसी अफरा–तफरी पैदा कर दी‚ कि पूरी दुनिया हैरान रह गई। ये हथियारबंद ट्रम्प समर्थक संसद की उस कार्यवाही पर दबाव बना रहे थे‚ जहां चुनाव नतीजों पर संसद की मुहर लगनी थी। यह अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव की एक प्रक्रिया है। अर्थात हिंसक भीड़ ताकत से जनमत को प्रभावित करना चाह रही थी। ७४ वर्षीय डोनाल्ड ट्रम्प फिलहाल राष्ट्रपति हैं। अगले राष्ट्रपति पद के लिए जो चुनाव हुए‚ उसमें वह अपनी रिपब्लिकन पार्टी के दुबारा उम्मीदवार थे‚ लेकिन पिछले दिनों जो चुनाव हुए उसमें वह डेमोक्रेट उम्मीदवार जो बाइडेन से पिछड़ गए। उन्होंने अदालत की शरण ली‚ लेकिन वहां भी उनका समर्थन नहीं मिला। अमेरिकी कायदों के मुताबिक इसी माह की बीस तारीख को नवनिर्वाचित राष्ट्रपति को पदभार ग्रहण करना है। इसके पहले संसद की मुहर लगती है। इसी वास्ते जो प्रक्रिया चल रही थी उसे बलात प्रभावित करने के इरादे से ट्रम्प ने अपने समर्थकों से संसद की तरफ कुच करने की अपील की और तैयार बैठे समर्थक संसद भवन में दोपहर लगभग दो बजे घुस भी गए। उन लोगों के घुसते ही अफरा–तफरी स्वाभाविक थी। यह लगभग वैसा था जैसा भारत में १३ दिसम्बर २००१ को संसद की चल रही कार्यवाही के बीच लश्कर–ए–तैयबा और जैश–ए–मोहम्मद के आतंकवादियों का हमला था।

इस बीच संसद ने जो बाइडेन और भारतीय मूल की कमला हैरिस के क्रमशः राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुने जाने की पुष्टि कर दी है। ५३८ सदस्यों वाली कांग्रेस (यूएसए संसद) में जो बाइडेन को ३०६ और डोनाल्ड ट्रम्प को २३२ सीटें मिली हैं। बुधवार की घटना कोई नवोदित लोकतांत्रिक देश में नहीं उस अमेरिका में हुई है‚ जहां स्वतंत्रता और लोकतंत्र की लम्बी लड़ाई लड़ी गई है। ४ जुलाई १९७६ को जॉर्ज वाशिंगटन के नेतृत्व में एक लम्बे संघर्ष के बाद आजादी हासिल की थी और लोकतंत्र का संकल्प लिया था। हर वर्ष ४ जुलाई को अमेरिका अपनी आजादी का जश्न मनाता है। वह यूरोपीय देशों से कुछ अर्थों में भिन्न है कि वहां रेनसां या प्रबोधनकाल नहीं आया और समाजवादी बुखार भी उस तरह नहीं आया जैसा यूरोप के देशों में आया‚ लेकिन लोकतंत्र के उसके वायदे हमेशा चिह्नित किए जाते रहे हैं। आधुनिक जमाने के अनेक सामाजिक दार्शनिकों ने वहां के लोकतांत्रिक आंदोलन से प्रेरणा ली है। इसमें कार्ल मार्क्स भी हैं औरजवाहरलाल नेहरू व भीमराव आम्बेडकर भी। उन्नीसवीं सदी में भारत के किसान नेता और महाराष्ट्रीय नवजागरण के प्रतीक पुरुष महात्मा ज्योतिबा फुले ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘गुलामगिरी’ उन अमेरिकी योद्धाओं को समपत की है‚ जिन्होंने अमानवीय दास अथवा गुलाम प्रथा के खिलाफ आंदोलन किया था और सफलता हासिल की थी। मानवता की मुक्ति के लिए अमेरिका को हमेशा याद किया जाता है।

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वह जॉर्ज वाशिंगटन का देश है तो एंड्रू जैक्सन और अब्राहम लिंकन का भी। १८२९ में जब वहां एंड्रू जैक्सन राष्ट्रपति चुने गए‚ तो उन्होंने एकबारगी कई तरह के तामझाम को उतार फेंका। वह सामान्य कार्यकर्ताओं के साथ व्हाइट हाउस में घुसा और उसके पूरे अभिजात ढकोसलों को तहस–नहस कर दिया। कहा जाता है कि उसने अमेरिका में वास्तविक लोकतंत्र लाया। यह भी कहा जाता है कि अमेरिका में वास्तविक (रियल) लोकतंत्र है‚ जबकि ब्रिटिश लोकतंत्र में आज भी अभिजात (रॉयल) तत्व हावी हैं‚ लेकिन यह भी है कि हर देश की तरह वहां भी वर्चस्ववादी ताकतें बनी हुई हैं और कभी –कभार सिर भी उठाती हैं। इस सदी के आरम्भ में यह सुना गया कि गोरों के एक नस्लवादी संघटन कु–क्लक्स–क्लान अथवा ३ के की सदस्यता में एक बार फिर इजाफा हो रहा है‚ लेकिन तभी खबर आई कि एक ब्लैक बराक ओबामा अमेरिकी राष्ट्रपति चुने गए हैं। एक बार फिर अमेरिकी लोकतंत्र ने दुनिया को आश्वस्त किया कि हम वही अमेरिका हैं‚ जिसकी नींव वाशिंगटन‚ जैक्सन और लिंकन जैसे लोगों ने रखी है। जिसने एक समय नस्लवादी दास प्रथा का कानून द्वारा अंत किया है। जहां सोजॉर्नर ट्रुथ ने कभी गुलामी प्रथा के खिलाफ आंदोलन किया है‚ लेकिन अफसोस दुनिया भर में लोकतंत्र के बुझते चिरागों को बल देने वाला अमेरिका आज खुद कहां आ गया हैॽ
अमेरिका आज इस स्तर तक कैसे पहुंचाॽ इसके लिए अमेरिकी समाज में आई गिरावट और उसके बीच उभरते नये जीवन मूल्यों को देखा जाना चाहिए। ट्रम्प के व्यक्तित्व और सरोकारों को भी देखा जाना चाहिए। ट्रम्प की राजनीतिक पृष्ठभूमि अत्यंत क्षीण रही है। वह राजनेता नहीं बल्कि बिजनसमैन रहे हैं। उनका राष्ट्रपति पद का चुनाव जीतना अधिकांश लोगों को अचंभित कर गया था‚ लेकिन वह जीते यह एक सच्चाई थी‚ जैसे आज हारे यह एक सच्चाई है। क्या हमने उनकी जीत के कारणों का कभी विश्लेषण किया हैॽ शायद नहीं। उनकी जीत क्या ओबामा के दो दफा राष्ट्रपति बन जाने की एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया नहीं थीॽ मेरा मानना है यही सच था। ओबामा का राष्ट्रपति होना अमेरिका के सामाजिक–राजनीतिक जीवन में यदि एक क्रांति थी तो ट्रम्प का जीतना एक प्रतिक्रांति। यह एक नस्ली विस्फोट था‚ जो चुपचाप हुआ था। मैं नहीं समझता कि इस एक घटना से अमेरिका में लोकतंत्र की जड़ें कमजोर होंगी। मेरा मानना है कि इसके विपरीत वह मजबूत होगी।
यदि अमेरिका के स्वातंय आंदोलन का पूरी दुनिया में असर पड़ा था‚ तो इस घटना का पड़ना भी लाजिमी है। हमारे यहां इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी अभी देखना है। यह वही अमेरिका है‚ जो आपातकाल के दौरान (१९७५) हमें सीख दे रहा था। भारत में जैसे ही इंदिरा गांधी पराजित हुइ‚ उन्होंने सत्ता छोड़ दी। कोई सोच भी नहीं सकता था कि इंदिरा नतीजों को मानने से इनकार कर दें। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव प्रचार में हिस्सा ले कर ट्रम्प के लिए वोट मांगे थे। किसी दूसरे देश के शासनाध्यक्ष का दूसरे देश की राजनीति में इस तरह का हस्तक्षेप निंदनीय है। हालांकि मोदी ने अपने मित्र की हरकतों पर नाराजगी और औपचारिक क्षोभ दर्ज किया है।

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